Source: ਪਾਪ ਪੁੰਨ (paap/punn)
To understand “पाप पुंन” (paap/punn) we first need to understand Hukam. The world has always been stuck in “Karam Philosophy” which means we think we are capable of doing something. We think we are in control. The karm philosophy makes us believe we are the doers. Gurbani is based on “Hukam Philosophy”. Nanak says,
“तूं करता करणा मै नाही जा हउ करी न होई ॥१॥” – जिसदा अरथ बणदा है के करता तूं है मैं नहीं। जे करना चाहां वी तां नहीं कर सकदा।
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“जब इह जानै मै किछु करता॥ तब लगु गरभ जोनि महि फिरता ॥” – जे आपणे आप नूं करता मंन लिआ तां गरभ जोन विच भ्रमण नहीं मुकणा बार बार गरभ लोक विच जनम हुंदा रहिणा ते जमां (विकारां) दे पटे पैंदे ही रहिणे। होर वी कई प्रमाण हन के करता केवल करतार है जिवें
केवल कालई करतार॥ आदि अंत अनंत मूरति गड़्हन भंजनहार॥१॥,
आखणि जोरु चुपै नह जोरु॥ जोरु न मंगणि देणि न जोरु॥ जोरु न जीवणि मरणि नह जोरु॥ जोरु न राजि मालि मनि सोरु॥ जोरु न सुरती गिआनि वीचारि॥ जोरु न जुगती छुटै संसारु॥ जिसु हथि जोरु करि वेखै सोइ॥ नानक उतमु नीचु न कोइ॥३३॥ – जदों साडा जोर ही नहीं तां पाप पुंन असीं किवें कर सकदे हां?
तूं आदि पुरखु अपरंपरु करता जी तुधु जेवडु अवरु न कोई॥ तूं जुगु जुगु एको सदा सदा तूं एको जी तूं निहचलु करता सोई॥ तुधु आपे भावै सोई वरतै जी तूं आपे करहि सु होई॥ तुधु आपे स्रिसटि सभ उपाई जी तुधु आपे सिरजि सभ गोई॥ जनु नानकु गुण गावै करते के जी जो सभसै का जाणोई॥
करता सभु को तेरै जोरि॥
आपे कारणु करता करे स्रिसटि देखै आपि उपाइ॥ सभ एको इकु वरतदा अलखु न लखिआ जाइ॥ आपे प्रभू दइआलु है आपे देइ बुझाइ॥ गुरमती सद मनि वसिआ सचि रहे लिव लाइ॥१॥
इकु पछाणू जीअ का इको रखणहारु॥ इकस का मनि आसरा इको प्राण अधारु॥ तिसु सरणाई सदा सुखु पारब्रहमु करतारु॥१॥
गुरु करता गुरु करणहारु गुरमुखि सची सोइ॥गुर ते बाहरि किछु नही गुरु कीता लोड़े सु होइ॥२॥
मनमुखि गणत गणावणी करता करे सु होइ॥
लिखिआ मेटि न सकीऐ जो धुरि लिखिआ करतारि॥
तुझ ते बाहरि कछू न होइ॥ तूं करि करि वेखहि जाणहि सोइ॥ आपे करे कराए करता गुरमति आपि मिलावणिआ॥३॥
आपि कराए करता सोई॥ होरु कि करे कीतै किआ होई॥
मूरख गणत गणाइ झगड़ा पाइआ॥ सतिगुर हथि निबेड़ु झगड़ु चुकाइआ॥ करता करे सु होगु न चलै चलाइआ॥४॥
गरब गतं सुख आतम धिआना॥ जोति भई जोती माहि समाना॥ लिखतु मिटै नही सबदु नीसाना॥ करता करणा करता जाना॥
धनु धनु सुआमी करता पुरखु है जिनि निआउ सचु बहि आपि कराइआ॥
डरीऐ तां जे किछु आप दू कीचै सभु करता आपणी कला वधाए॥ देखहु भाई एहु अखाड़ा हरि प्रीतम सचे का जिनि आपणै जोरि सभि आणि निवाए॥
तू करता सभु किछु जाणदा जो जीआ अंदरि वरतै॥ तू करता आपि अगणतु है सभु जगु विचि गणतै॥ सभु कीता तेरा वरतदा सभ तेरी बणतै॥ तू घटि घटि इकु वरतदा सचु साहिब चलतै॥ सतिगुर नो मिले सु हरि मिले नाही किसै परतै॥२४॥
बिअंत बाणी है जो हुकम समझा रही है ते सब कुझ करते वस दस रही है, फेर मेरा कीता किदां होणा? बाणी पड़्हन ते स़ुरूआत ही करदे हां "ॴ सति नामु करता पुरखु गुर प्रसादि॥ – जिस दा भाव है असीं अकाल नूं ही करता पुरख आखदे हां। जे पाप पुंन दा करता मैं हां तां फेर उसतत अकाल दी इस पंकती नाल किवें होई? Gurbani rejects karam philosophy. Everything that happens around us happens in the will of Akaal Purakh. We can think a million times but without his will we canἙt do anything
“सोचै सोचि न होवई जे सोची लख वार ॥“
As per Gurbani
“पाप पुंन हमरै वसि नाहि॥“
meaning that vice, virtue, sin, good and bad deeds are not in our control. We can think of doing good or doing bad but unless it is the will of Akaal Purakh we cannot do anything even if we think a million times
“सोचै सोचि न होवई जे सोची लख वार ॥”.
Every other living being is in the hukam of Akaal Purakh, humans believe we have the ability to think and we misuse our abilities. We are only supposed to wish/think about the good deeds and let Akaal Purakh decide what is good or bad for us. When we seek reward, results, material possession’s it gives birth to greed, jealousy and evil thoughts.
"काइआ अंदरि पापु पुंनु दुइ भाई॥ दुही मिलि कै स्रिसटि उपाई॥
एकहि आपि करावनहारा॥ आपहि पाप पुंन बिसथारा॥इआ जुग जितु जितु आपहि लाइओ॥ सो सो पाइओ जु आपि दिवाइओ॥ उआ का अंतु न जानै कोऊ॥ जो जो करै सोऊ फुनि होऊ॥ एकहि ते सगला बिसथारा॥ नानक आपि सवारनहारा॥८॥
The world as we see it is created as a result of good deeds and bad deeds, sins and virtues. What we sow is what we reap. Everything that is happening around is a result of ones own desires and wishes
ददै दोसु न देऊ किसै दोसु करंमा आपणिआ॥
जो मै कीआ सो मै पाइआ दोसु न दीजै अवर जना ॥२१॥
The world is stuck between bad (दुक्रित) deeds and good (सुक्रित) deeds. The bhagat or gurmukh is free from desires of both good or bad deeds. Bhagat is the one who remains in hukam.
दुक्रित सुक्रित मंधे संसारु सगलाणा॥
दुहहूं ते रहत भगतु है कोई विरला जाणा ॥१॥
गुरबाणी दे आधार ते पुंन केवल गोबिंद/परमेस़र/हरि दे गुण गाणा है "कलि महि एहो पुंनु गुण गोविंद गाहि॥ – कलि अरथ कलजुग। कलजुग गुरमति अगिआनता नूं मंनदी है ना के सनातन मति वांग समें नूं।
आपणे मूल दा गिआन लैणा ही पुंन है होर कोई नही। कई दान करना सेवा करन नूं पुंन मंन लैंदे ने इह ता मूल फरज ने कोई वडी गल नहीं ते जे करता परमेसर है ते फेर मैं ते तुसीं की दान कर सकदे हों? या फेर करता दान/ सेवा करवा रहिआ है ? जो वसतू मेरी है ही नहीं मैं दान की कीता? दान वी गुरमति गिआन नूं, नाम नूं, सोझी मंनदी है। इसदे इलावा दास दा आपणा की हुंदा है जो दे सके।
जिहड़े स़िकारी हन जां फौज विच हन उहनां नूं कदे पुछ के वेखो के हथ विच बंदूक होवे, निस़ाने ते स़िकार होवे, स़िकार बिलकुल आराम नाल खड़ा होवे, की तुसीं गरंटी लै सकदे हों के गोली लगू? जे लग वी जाऊ तां स़िकार ने मर ही जाणा? इही गल गुरमति दसदी है के "जैसे काती तीस बतीस है विचि राखै रसना मास रतु केरी॥ कोई जाणहु मास काती कै किछु हाथि है सभ वसगति है हरि केरी॥ – जिवें तीस बतीस दंदां दे विच रसना (जीभ) है पर दंदां तों उसनूं कौण बचा रहिआ है? फिर इसदा जवाब वी दिता के सानूं लगदा काती (कटण वाली वसतू) कट रही है पर इह तां वसगति है हरि केरी (हर दा हुकम है)। दसम बाणी विच वी आखिआ "दंत जीभ जिम राखि है दुसट अरिसट संघार ॥२५॥ जिवें जिवें दंदां दे विच जीभ नूं रखदा है उदां ही दुसट अरिसट दा संघार करके जीव नूं वी रखदा। साडे डर इतने जिआदा हन के असीं किसे वी गल तों, पाप पुंन तों डरदे रहिंदे हां। जदों गुरबाणी दा पाप पुंन दा फ़लसफ़ा समझ आउंदा है, हुकम दी सोझी पै जांदी है तां "अनभउ (भउ रहित) पद दी प्रापती हुंदी है। जीव डरना बंद कर दिंदा है। जिहड़े चार भार जीव आपणे सिर ते चुकी फिरदा है उह लथ जांदे हन "हउमै मोह भरम भै भार॥। गुरबाणी दा फुरमान है के "पाप पुंन की सार न जाणी॥ दूजै लागी भरमि भुलाणी॥ अगिआनी अंधा मगु न जाणै फिरि फिरि आवण जावणिआ॥५॥।
पाप पुंन दा जाल उहनां बणाइआ जिहनां ने लोकां विच भरम वधा के जां तां आपणे मगर लगाउणा सी जां गोलक मगर। इह उह ने जो आप फसे होए ने, डरे होए ने ते लोकां नूं डराउण दा कंम करदे ने। जिवें जिवें गुरमति दी विचार करीए, समझ बूझ गुरमति तों प्रापत हुंदी है डर खतम हो जांदा है। परमेसर नाल प्रेम वधे तां डर खतम हुंदा जांदा है। कई दूजीआं मतां तों प्रभावित हन इस करके वी डरदे हन जिवें आखिआ है "सासत्र बेद पाप पुंन वीचार॥ नरकि सुरगि फिरि फिरि अउतार॥२॥ ते साडे आस पास कई लोग इह सासत्र, बेद, सिम्रितीआं पड़्हदे ने, दूजीआं मतां वालिआं नाल विचरण कारण वी भुलेखा वधदा। कई सिखी विच तां आए आपणी मति नहीं छडी ते अज वी पाप पुंन मंनदे हन। उहनां तों सवाल पुछो की उहनां नूं करम ते हुकम दा फरक समझ आइआ है?
गुरमति वाली बुध निज नार है ते दूजीआं मतां नूं गुरमति अहोई (ना होण वाली) पराई नार मंनदी है। कबीर जी आखदे हन के "कबीर हरि का सिमरनु छाडि कै अहोई राखै नारि॥ गदही होइ कै अउतरै भारु सहै मन चारि॥१०८॥ इह उही मन ते चार भार ने जो उपर दसे हन।
सो बाणी नूं विचार के निज नार (गुरमति वाली बुध) हासिल करनी है। निज नार सुहागण नार गुरमति दी धारणी बुध है जिसनूं हरि दी प्रापती घट विच ही होई है "हरि वरु रावहि सदा मुईए निज घरि वासा पाए॥ निज घरि वासा पाए सबदु वजाए सदा सुहागणि नारी॥
गुरबाणी ने हिरदे नूं खेत दसिआ है जिथे नाम (सोझी) दा बीज बोणा है। पर पाप पुंन जे इस खेत विच रह गए तां विकार उपजणे अगिआनता उपजणी "खेती वणजु नावै की ओट॥ पापु पुंनु बीज की पोट॥ कामु क्रोधु जीअ महि चोट॥ नामु विसारि चले मनि खोट॥२॥
गुरमति ने पाप पुंन नूं एक समान दसिआ है "पाप पुंन दुइ एक समान॥ निज घरि पारसु तजहु गुन आन॥३॥ – पारस (पा+ रस, रस दी प्रापती / अंम्रित/ सोझी/ नाम) नाल इसनूं समझण दे गुण मिलणे।
जब अकारु इहु कछु न द्रिसटेता॥ पाप पुंन तब कह ते होता॥ जब धारी आपन सुंन समाधि॥ तब बैर बिरोध किसु संगि कमाति॥ जब इस का बरनु चिहनु न जापत॥ तब हरख सोग कहु किसहि बिआपत॥ जब आपन आप आपि पारब्रहम॥ तब मोह कहा किसु होवत भरम॥ आपन खेलु आपि वरतीजा॥ नानक करनैहारु न दूजा॥१॥" – जदों मन दा अकार नहीं सी बणिआ, विकारां नहीं सन तां पाप पुंन किथे सी। जदों तक अगिआनता विच वैरी मीत नहीं धारे सी पाप पुंन किथे सी? जदों इछा नहीं सी, माइआ नाल जुड़िआ नहीं सी पाप पुंन किथे सी? जदों गिआन हो गिआ भरम मुक जाणे सारे, विकार ते भरम खतम हो जाणे तां पता लगणा के पाप पुंन किसदे हुकम वस हन।
जह आपि रचिओ परपंचु अकारु॥ तिहु गुण महि कीनो बिसथारु॥ पापु पुंनु तह भई कहावत॥ – जदों जीव ने परपंच रचे आपणा हाड मास दा सरीर सिरजिआ तां तिही गुणी संसार सुता (अगिआनता दी नींद विच, त्रै गुण माइआ विच सुता) तां पाप पुंन रचिआ गिआ। त्रै गुण माइआ रजो गुण (राज दा लोभ, उपाधीआं दा पैसे दा लोभ जां जुड़ाव), सतो गुण (चंगा/धरमी/दूजिआं तों सिआणा दिसण दी इछा, संत दिसण दी इछा। लोग मगर लौण दी इछा) अते तमो गुण (परिवार नाल, लोकां नाल, सरीर नाल मोह, काम वासना) इहनां दे कारण भरम है जिस विच जीव सुता है ते इहनां कार ही पाप पुंन दा फाहा गले विच पिआ होइआ है "तिही गुणी संसारु भ्रमि सुता सुतिआ रैणि विहाणी॥। "त्रै गुण बिखिआ अंधु है माइआ मोह गुबार॥, "त्रै गुण दीसहि मोहे माइआ॥ अते "त्रै गुण माइआ मोहु है गुरमुखि चउथा पदु पाइ॥ – गुणां नूं मुख रखण वाले ने ही चौथा पद प्रापत करना है जिस विच त्रै गुण माइआ तों छुटकारा होणा।
कई वीर भैणां बाणी पड़्हदे ने समझदे नहीं ताहीं चारे पद पता ही नहीं हन ते किवें मिलदे ने इहनां दा कोई गिआन नहीं। उहनां दा सारा जीवन तां हउमे विच ही निकल जांदा है। जिहड़े बाणी तों दूर हन उहनां नूं पैसे दा, रूप दा घर जां उहदिआं दी हउमे है। बाणी पड़्हन वाले झूठे ही आपणे आप नूं हउमे विच बाकीआं तों चंगा मंनी बैठे ने। गिआनी मंनी बैठे ने। किसे नूं सेवा दा माण है, किसे नूं आपणे बाणी पड़न दा, भेख दा माण है, किसे नूं सवेरे उठण दा माण है, किसे नूं रोज केसी सनान दा। कुल दा माण है। हउमे विच सारा जीवन कड दिंदे हन। गुरबाणी दा फुरमान है के पाप पुंन दी विचार वी हउमे कारण है। जी मैं मास दा तिआगी हां फेर इसदी वी हउमे मंनी जाणा। दूजे नूं पापी कहणा ही हुकम नूं ना समझण दी निस़ानी है, अगिआनता ते भरम दी निस़ानी है। "हउ विचि आइआ हउ विचि गइआ॥ हउ विचि जंमिआ हउ विचि मुआ॥ हउ विचि दिता हउ विचि लइआ॥ हउ विचि खटिआ हउ विचि गइआ॥ हउ विचि सचिआरु कूड़िआरु॥ हउ विचि पाप पुंन वीचारु॥ हउ विचि नरकि सुरगि अवतारु॥ हउ विचि हसै हउ विचि रोवै॥ हउ विचि भरीऐ हउ विचि धोवै॥ हउ विचि जाती जिनसी खोवै॥ हउ विचि मूरखु हउ विचि सिआणा॥ मोख मुकति की सार न जाणा॥ हउ विचि माइआ हउ विचि छाइआ॥ हउमै करि करि जंत उपाइआ॥ हउमै बूझै ता दरु सूझै॥ गिआन विहूणा कथि कथि लूझै॥ नानक हुकमी लिखीऐ लेखु॥ जेहा वेखहि तेहा वेखु॥१॥। हउमे विच सचिआर कुड़िआर दी विचार करदा पातिस़ाह आखदे "किव सचिआरा होईऐ किव कूड़ै तुटै पालि॥ – किवें सचिआरा बणा किवें कूड़ तों छुटकारा होवे, फेर अगे जवाब दिंदे मे "हुकमि रजाई चलणा नानक लिखिआ नालि ॥१॥ भाई हुकम विच रजा दे विच चल, इही तेर नाल लेखा लिखिआ होइआ धुरों आइआ है। "चाकरु लगै चाकरी जे चलै खसमै भाइ ॥ – खसमे भाए दा अरथ हुकम मंने।
जिह प्रसादि करहि पुंन बहु दान ॥ मन आठ पहर करि तिस का धिआन ॥ जिह प्रसादि तू आचार बिउहारी ॥ तिसु प्रभ कउ सासि सासि चितारी ॥
सवाल आइआ के इहनां पंकतीआ विच पुंन दान अते आचार बिउहार की है ?
पुंन केवल गोबिंद दे गुण गाउणा (हुकम मंनणा है) "कलि महि एहो पुंनु गुण गोविंद गाहि॥।
दान केवल नाम (सोझी) मिलणा है "एहु अहेरा कीनो दानु॥ नानक कै घरि केवल नामु
हुकम रजाई चलणा हुकम विच रहिणा ही गुरमुख दा बिउहार है "नाम रतन को को बिउहारी॥ अंम्रित भोजनु करे आहारी॥१॥ , "नामु भगत कै प्रान अधारु॥ नामो धनु नामो बिउहारु॥१॥, "नाम बिना जेता बिउहारु॥ जिउ मिरतक मिथिआ सीगारु॥२॥ – नाम है हुकम दी सोझी।
"हरि जीउ तूं करता करतारु॥ जिउ भावै तिउ राखु तूं हरि नामु मिलै आचारु॥१॥, "मनहठ बुधी केतीआ केते बेद बीचार॥ केते बंधन जीअ के गुरमुखि मोख दुआर॥ सचहु ओरै सभु को उपरि सचु आचारु॥५॥
इह समझ आ जाणा के मेरा कुझ नहीं है वयकतीगत कुझ नहीं है, सब हुकम ही है इही नाम (सोझी) है। इह सोझी मिल जाणा ही दान है। "विणु तुधु होरु जि मंगणा सिरि दुखा कै दुख॥ देहि नामु संतोखीआ उतरै मन की भुख॥ गुरि वणु तिणु हरिआ कीतिआ नानक किआ मनुख॥२॥
भ्रात की है इथे – तूं मेरा बंधपु तूं मेरा भ्राता॥ (१०३) – प्रभ ही भ्रात है। सारी रिस़तेदारीआं अंदर ही हन। "भाई रे मै मीतु सखा प्रभु सोइ॥, "मेरा हरि प्रभु मितु मिलै सुखु पाई जीउ॥, "मति माता संतोखु पिता सरि सहज समायउ ॥, "तुमहि पिता तुम ही फुनि माता तुमहि मीत हित भ्राता ॥, "मात पिता सुत भ्रात मीत तिसु बिनु नही कोई ॥,
"मिरत मोहं अलप बुधॵं रचंति बनिता बिनोद साहं॥
पूरी गुरमति मन नूं इही समझाउण लई है के करता अकाल है। बाणी दी समझ आ जावे, हुकम दी सोझी नाल पाप पुंन दी विचार खतम हो जांदी है। "करम धरम सभि बंधना पाप पुंन सनबंधु॥। असीं धरम दे करम नूं स्रेस़टता देण नाल ही पाप पुंन विच फसदे हां। "दिसटि बिकारी बंधनि बांधै हउ तिस कै बलि जाई॥ पाप पुंन की सार न जाणै भूला फिरै अजाई॥१॥। जिहनां नूं आपणे प्रभ दी सोझी पई उहनां पाप पुंन रद करते, सुरग नरक वी रद करते "कवनु नरकु किआ सुरगु बिचारा संतन दोऊ रादे॥ हम काहू की काणि न कढते अपने गुर परसादे॥५॥ सुरग नरक दी विचार लई पड़्हो
बाणी नूं पड़्ह के बूझो भाई। सुकरित दुकरित छडो। पाप पुंन दी विचार विच सुख नहीं है। हुकम बूझण नाल सुख मिलणा। मनुख बहुत चलाक जीव है। चाहुंदा है के माइआ नाल मोह वी बणिआ रहे ते परमेसर प्रापती वी हो जावे। इस कारण अगिआनता विच फस जांदा। बिनां संमपूरण भरोसे दे परमेसर प्रापती नहीं हुंदी। दुख विच सुख विच आनंद चड़्हदीकला विच रहिण विच है। "बोलहु जसु जिहबा दिनु राति॥ प्रभि अपनै जन कीनी दाति॥ करहि भगति आतम कै चाइ॥ प्रभ अपने सिउ रहहि समाइ॥ जो होआ होवत सो जानै॥प्रभ अपने का हुकमु पछानै॥ तिस की महिमा कउन बखानउ॥ तिस का गुनु कहि एक न जानउ॥ आठ पहर प्रभ बसहि हजूरे॥ कहु नानक सेई जन पूरे॥
Source: ਪਾਪ ਪੁੰਨ (paap/punn)