Source: ਸਿੱਖੀ ਵਿੱਚ ਵੈਰ ਤੇ ਬਦਲਾ (Revenge)

सिखी विच वैर ते बदला (Revenge)

जदों असीं मुहरे किसे अत दरजे दे निरदई, गुनाहगार, नीच मनुख नूं वेखदे हां तां साडे मन विच रोस जागदा है। इह सुभाविक मनुखी सोच है। साडे मन विच क्रोध ते बदले दी भावना बण जाणा लाज़मी है। जदों रोस जागे उदों साडा आचरण किहो जिहा होणा चाहीदा है? इह सानूं गुरबाणी तों समझणा पैणा। जे कोई गुनहगार है तां उस नूं दंड देण दी की प्रकिरिआ है इह गुरबाणी तों सिखणा पैणा। गुरबाणी जिथे सानूं सील धरम संतोख दा पाठ पड़्हाउंदी है हुकम विच रहिंदिआं दंड निरधारित करन दा तरीका वी दसदी है। किसे दोस़ी नूं दंड देणा इक विस़ा है ते उस तों कबूल करवा के उसदे हंकार नूं तोड़ के अहिसास कराउणा वी इक वडा विस़ा है। गुरू नानक देव पातिस़ाह दा किरदार इहो जिहा सी के कौडे राकस़स वरगे नूं वी गोडिआं भार डिगणा पिआ। आउ विचार करदे हां के मेरे लई गुरबाणी दा की आदेस़ है। मेरा किरदार गुरबाणी वीचार के किहो जिहा होवे। जदों मेरा किरदार गुरमति दा धारणी होवेगा तां मैनूं निरपख निरवैर रहिंदिआं पापी नूं दंड देण दी सही जांच होणी।

गुरबाणी ने अकाल मूरत जोत जो घट घट विच मौजूद है अकाल दी मूरत है अकाल दे अठ मूल गुणां विचों उसदा इक मूल गुण निरवैरता दसिआ है। गुरबाणी विच मन दे सुभाअ अते विकारां दुआरा मनुख दी काइआ (presence) ते होण वाले नुकसान बारे बहुत विसथार नाल समझाइआ है। मनुख दी काइआ उसदा संसार विच विचरण है। जो सानूं चंगी तरह जाणदे नहीं उह साडे बारे की सोचदे हन, उहनां ते साडी गल साडे बिउहार दी की छाप है असीं उसनूं काइआ कहि सकदे हां। सानूं गुरमति तों इह पता लगदा है के "कामु क्रोधु काइआ कउ गालै॥। गुरबाणी मन नूं इही गुण आपणे मूल चेते कराण दा जतन करदी है "मन तूं जोति सरूपु है आपणा मूलु पछाणु॥ मन हरि जी तेरै नालि है गुरमती रंगु माणु॥ मूलु पछाणहि तां सहु जाणहि मरण जीवण की सोझी होई॥ गुरपरसादी एको जाणहि तां दूजा भाउ न होई॥ मनि सांति आई वजी वधाई ता होआ परवाणु॥ इउ कहै नानकु मन तूं जोति सरूपु है अपणा मूलु पछाणु॥

इह समझणा है के वैर दी भावना मनुख ते की असर करदी है। जिहड़े भगतां गुरूआं दे किरदार नूं समझदे हन उह जाणदे हन के गुर इतिहास विच किसे गु्रू, भगत, गुरमुख ने वैर दी भावना नहीं रखी भावें कोई भूतना बेताला कहे, तती तवी ते बैठे होण, सिर हाथी दे पेर थले होवे जां सिर कलम हो जावे। जदों पंचम पातिस़ाह दी स़हादत होई ते छेवें पातिस़ाह ने मीरी पीरी दा उपदेस़ दिता, स़सतर धारन कीते उदों वी उहनां सारे मुसलमान वीरां नाल दवेस़ जां वैर दी भावना नहीं रखी। फौज इकठी कर के मुगल बादस़ाह ते हमला नहीं कीता बलकि उहनां ने गरीब मुसलमानां लई मसजिद दी सथापना कीती। नौवें पातिस़ाह दी स़हादत होई, दसम पातिस़ाह ने चार पुत, मां ते सिखां दीआं अनेका स़हादतां तों बाद वी मुसलमानां नाल वैर नहीं रखिआ। औगज़ेब नूं ज़फ़रनामे विच जो लिखदे हन उह दरसाउंदा है के गुरू पातिस़ाह दे मन विच रोस नहीं वैर नहीं सगों औरंगज़ेब वरगे ज़ालम नूं वी सच वेखण ते मजबूर कर देवे। कुझ इतिहासकारां दा मंनणा है के ज़फ़रनामा पड़्ह के मुगल बादिस़ाह ढाहां मार के रोइआ ते सिर नंगा केवल फतूही पाई ही महिल तों बाहर नूं भजिआ सी ते मुगल दरबारीआं ने फड़ के बिठाइआ। दसम पातिस़ाह ने वैर दी भावना नहीं रखी ते अगे बहादर स़ाह नूं राज दवाईआ। सिख इतिहास विच बिअंत स़हादतां होईआं हन, बिअंत जंगां हिंदू राजिआ, तुरकां अते मुगलां नाल जंग होण दे बाद वी सिखां ने गुरू पातिस़ाह दे वैर ना रखण दे फ़लसफ़े नूं चेते रखिआ है। गुरमति उपदेस़ है के वैर विरोध नहीं धारण करना। जे किसे नूं संका होवे तां इस लेख विच अगे दसीआं पंकतीआं दा उपदेस़ विचार लवे

गुरमुखि पावै घटि घटि भेद॥ गुरमुखि वैर विरोध गवावै॥(म १, रागु रामकली, ९४२) – भाव गुणां नूं मुख रखण वाला हरेक जीव दे घट विच परमेसर दी जोत होण दा भेद समझदा है। गुर मुख भाव गुणां नूं मुख रखण वाला वैर विरोध गवाउंदा है।

साधसंगि जपिओ भगवंतु॥ केवल नामु दीओ गुरि मंतु॥ तजि अभिमान भए निरवैर॥ आठ पहर पूजहु गुर पैर॥(म ५, रागु माझ, १०८) – साधसंग (साधे होए मन दे संग) जपिओ भाव पछाणिआ भगवंत। केवल नाम (सोझी) दा गुर मंतर चेते रखिआ। अभिमान तज के भाव छड के निरवैर होए, इही आठ पहर हर वेले गुर (गुणां) दे पैर पूजण बराबर है।

दसम पातिस़ाह वी इही आखदे हन के हरेक जीव विच परमेसर दी जोत समझणी है "कोऊ भइओ मुंडीआ संनिआसी कोऊ जोगी भइओ कोऊ ब्रहमचारी कोऊ जती अनुमानबो॥ हिंदू तुरक कोऊ राफजी इमाम साफी मानस की जात सबै एकै पहिचानबो॥ करता करीम सोई राजक रहीम ओई दूसरो न भेद कोई भूल भ्रम मानबो॥ एक ही की सेव सभ ही को गुरदेव एक एक ही सरूप सबै एकै जोत जानबो॥

ववा वैरु न करीऐ काहू॥ घट घट अंतरि ब्रहम समाहू॥ वासुदेव जल थल महि रविआ॥ गुर प्रसादि विरलै ही गविआ॥ वैर विरोध मिटे तिह मन ते॥ हरि कीरतनु गुरमुखि जो सुनते॥

जे हरेक जीव विच परमेसर दी जोत दिसण लग जावे, जो हो रहिआ है उह सब हुकम विच हुंदा दिसण लग जावे तां वैर विरोध खतम हो जांदे हन। स़ंके मिट जांदे हन। भरम कटे जांदे हन। मनुख वैर, गुसा, हउमै दी पंड सिर तों लाह के थले रख दिंदा है। आदि बाणी विच अगे होर समझाउंदे हन पातिस़ाह ते आखदे हन

भए क्रिपाल सुआमी मेरे जीउ॥ पतित पवित लगि गुर के पैरे जीउ॥ भ्रमु भउ काटि कीए निरवैरे जीउ॥गुर मन की आस पूराई जीउ॥" – सुआमी किरपाल होए, हुकम समझा के पतित पवित कर दिता। मन निरमल (मल रहित) हो गिआ तां सारे भरम मुक गए। जो अवसथा बणी उस विचों निरवैरता प्रापत होई, सहज उतपन होइआ। रंजिस़ मुक गई। बिअंत उपदेस़ हन बाणी विच जो दसदे हन के निर वैर किवें होणा है। निर वैर होण नाल की होणा।

जनु लागा हरि एकै नाइ॥ तिस की आस न बिरथी जाइ॥ सेवक कउ सेवा बनि आई॥ हुकमु बूझि परम पदु पाई॥ इस ते ऊपरि नही बीचारु॥ जा कै मनि बसिआ निरंकारु॥ बंधन तोरि भए निरवैर॥अनदिनु पूजहि गुर के पैर॥ इह लोक सुखीए परलोक सुहेले॥

जिसनूं गुरू दा उपदेस़ समझ लग जांदा है उह निरवैर हो के आपणे मन नूं नाम (सोझी) दुआरा हलका कर लैंदा है "गुर प्रसादि लागे नाम सुआदि॥ काहे जनमु गवावहु वैरि वादि॥२॥ – गुणां दे गाहक नूं तां नाम (सोझी) सुआद लगदी है "ब्रहम गिआनी बंधन ते मुकता॥ ब्रहम गिआनी की निरमल जुगता॥ ब्रहम गिआनी का भोजनु गिआन॥ नानक ब्रहम गिआनी का ब्रहम धिआनु॥

नानक दी हुकम दी विचारधारा लहिणे तों अंगद बणा दिंदी है। जे गुरबाणी समझ के असीं नानक नहीं बणे, नानक वाले ही गुण धारण नहीं कीता ता फेर गुरबाणी पड़्हन सुणन समझण दा की लाभ। गुरबाणी सुण समझ के मंन के असीं गुरबाणी ही बणना है। गुरबाणी, गुणां दी मति दा मूल गुण है इह सारिआं विच गिआन दी जोत उजागर करदी है ते मंनण वाले दी अवसथा बिआन नहीं कीती जा सकदी केवल महिसूस कीती जा सकदी है "मंने की गति कही न जाइ॥। धंन है गुर बाणी ते गुरबाणी विचला उपदेस़।

वाहु वाहु सतिगुरु पुरखु है जिनि सचु जाता सोइ॥ जितु मिलिऐ तिख उतरै तनु मनु सीतलु होइ॥ वाहु वाहु सतिगुरु सति पुरखु है जिस नो समतु सभ कोइ॥ वाहु वाहु सतिगुरु निरवैरु है जिसु निंदा उसतति तुलि होइ॥ वाहु वाहु सतिगुरु सुजाणु है जिसु अंतरि ब्रहमु वीचारु॥ वाहु वाहु सतिगुरु निरंकारु है जिसु अंतु न पारावारु॥ वाहु वाहु सतिगुरू है जि सचु द्रिड़ाए सोइ॥ नानक सतिगुर वाहु वाहु जिस ते नामु परापति होइ॥

दसम बाणी विचला आदेस़ वी इही है। दसम पातिस़ाह आखदे

दीन दयाल दुख हरण दुरमत हंता दुख खंडण॥ महा मोन मन हरन मदन मूरत महि मंडन॥ अमित तेज अबिकार अखै आभंज अमित बल॥ निरभंज निरभउ निरवैर निरजुर न्रिप जल थल॥ अछै सरूप अछू अछित अछै अछान अछर॥ अद्वै सरूप अद्विय अमर अभिबंदत सुर नर असुर॥

परमेसर निरवैर है "तुम जग के कारन करतारा॥ घटि घटि की मति जाननहारा॥ निरंकार निरवैर निरालम॥ सभ ही के मन की तुहि मालम॥ ते इह परमेसर (परम ईस़वर) दी जोत हरेक घट विच है "तूं आदि पुरखु अपरंपरु करता तेरा पारु न पाइआ जाइ जीउ॥ तूं घट घट अंतरि सरब निरंतरि सभ महि रहिआ समाइ जीउ॥ घट अंतरि पारब्रहमु परमेसरु ता का अंतु न पाइआ॥ तिसु रूपु न रेख अदिसटु अगोचरु गुरमुखि अलखु लखाइआ॥ सदा अनंदि रहै दिनु राती सहजे नामि समाइ जीउ॥ तूं आदि पुरखु अपरंपरु करता तेरा पारु न पाइआ जाइ जीउ॥२॥ । जदों इह समझ आ जावे तां किसे नाल वैर नहीं रहिंदा। जो सामणे खड़ा है उह वी जोत सरूप ही है ते जो उह कर रहिआ है उह वी हुकम विच कर रहिआ है "अपनै रंगि करता केल॥ आपि बिछोरै आपे मेल॥ इकि भरमे इकि भगती लाए॥ अपणा कीआ आपि जणाए॥

सूरमे उह नहीं हन जिहड़े रोस जां अहंकार करन "सूरे एहि न आखीअहि अहंकारि मरहि दुखु पावहि॥ अंधे आपु न पछाणनी दूजै पचि जावहि॥ अति करोध सिउ लूझदे अगै पिछै दुखु पावहि॥ हरि जीउ अहंकारु न भावई वेद कूकि सुणावहि॥ अहंकारि मुए से विगती गए मरि जनमहि फिरि आवहि॥। रक्रोध ते वैर दी भावना काइआ नूं गालदा है "कठन करोध घट ही के भीतरि जिह सुधि सभ बिसराई॥ रतनु गिआनु सभ को हिरि लीना ता सिउ कछु न बसाई॥

सानूं करना की है "काम करोध महा बिखिआ रस इन ते भए निरारे॥ दीन दइआल जपहि करुणा मै नानक सद बलिहारे॥

सो भाई वैर विरोध गुरमति गिआन दुआरा दूर करना है। Revenge दी भावना, बदले दी भावना, वैर विरोध नाम (हुकम दी सोझी) दुआरा दूर करीए। सबै घट राम बोलदा इह चेते रखीए। जदों माफ़ करना सिख लिआ, गुसा/क्रोध काबू कर लिआ इक अछे समाज दी रचना आपे हो जाणी। बदले दी भावना झगड़ा पैदा करदी है, भगत कबीर जी आखदे "झगरु कीए झगरउ ही पावा॥ सो बदले दी भावना झगड़े दा अंत नहीं होण दिंदी। जदों माफ़ करन लग पए झगड़ा मुक जाणा, पहिला कदम माफी दा होणा चाहीदा है। सो गुरबाणी केवल पड़्हनी नहीं है धारण करनी है। दंड देण दी जिंमेवारी अकाल/प्रभ/ठाकुर दी है "दुसट हरता बिस्व भरता आदि रूप अपार॥ दुसट दंडण पुसट खंडण आदि देव अखंड॥। पापी नूं सजा देणी है तां उसदी अहंकार, हउमै दी मति नूं सट होणी चाहीदी है। गुरमति दा प्रचार होवे तां सारिआं अंदर अकाल दी जोत होण दा गिआन प्रचारिआ जावे। आपस विच द्वेस़ दी भावना खतम होवे। सुहिरद पैदा करन नाल, गिआन दुआरा दुराचार खतम करन नाल इक सहिज धारण कीते होए समाज दी रचना कीती जा सकदी है जिथे किसे दे मन विच दूजे नाल द्वेस़ पैदा ही ना होवे।

वेखो

करम अते हुकम, करता कौण?

गुरमति विच राम

हरि


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