Source: ਗੁਰਮਤਿ ਵਾਲਾ ਸਿਵ / ਸ਼ਿਵ

गुरमति वाला सिव / स़िव

सोस़ल मीडीआ ते बहुत सारे वीर भैणा गुरमति वाले स़िव नूं सनातन मति वाले स़िव नाल जोड़ दिंदे हन। खास जदों दसम पातिस़ाह दे नाल जुड़े गुरपुरब मनाउंदे हन। जदों वी स़बद पड़्हदे गाउंदे हन "देह सिवा बरु मोहि इहै सुभ करमन ते कबहूं न टरो ॥ खास उसदी विआखिआ करन लगे, इह लोक बाणी नहीं पड़्हदे ना विचारदे ने ते गुरमति वाले स़िव नूं स़िवा नूं समझदे नहीं। इहनां मूरखां लई ही पातिस़ाह ने लिखिआ "महा मूड़्ह कछु भेद न जानत॥ महादेव को कहत सदा सिव॥ निरंकार का चीनत नहि भिव॥३९२॥। रोज पड़्ह के वी नहीं समझदे, इहनां लई ही लिखिआ के

एक सिव भए एक गए एक फेर भए रामचंद्र क्रिसन के अवतार भी अनेक हैं॥ब्रहमा अरु बिसन केते बेद औ पुरान केते सिंम्रिति समूहन कै हुइ हुइ बितए हैं॥ मोनदी मदार केते असुनी कुमार केते अंसा अवतार केते काल बस भए हैं॥ पीर औ पिकांबर केते गने न परत एते भूम ही ते हुइ कै फेरि भूमि ही मिलए हैं॥

की सनातन मति वाले स़िव नूं समझ सके? आओ वेखदे हां स़िव पुराण की आखदी है।

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Sarvaᴥ viśvaᵃ viśvamūrtir viśvarūpaś ca Śaᵅkaraᴥ
"He is all (Sarvaᴥ), the universe (Viśvaᵃ), the embodiment of the universe (Viśvamūrti), and the one whose form is the universe (Viśvarūpaᴥ)ἔthat is Śaᵅkara (Shiva).

"एको देवः स़िवो नित्यः सरवविआपी न संग्रहः। एको रुद्रो न द्वितीयाय तस्थुर्ह्यपि यः।

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Eko devaᴥ śivo nityaᴥ sarvavyāpī na saᵅgrahaᴥ।
Eko rudro na dvitīyāya tasthur yapi yaᴥ॥

भाव

सार:
स़िव पुराण अनुसार, स़िव परम ब्रहम है जो अजनमा, अद्वितीय, अनासकत, अते सभ विच विआपक है। उह सरब-उतपती, संभाल, अते संहार दा मूल है।

गुरबाणी विच वी परमेसर दे इहो गुण दसे हन।
"एकम एकै आपि उपाइआ, "निरगुणु आपि सगुणु भी ओही वरगीआं पंकतीआं नाल तुलना करके इंटरफेथ विस़लेस़ण वी कर सकदा हां। फेर जो गलती स़िव नूं मूरती बणा के सनातन मति वाले कर रहे हन, की असीं वी उही नहीं कर रहे।

स़िव अकाल दा ही नाम है। स़कती उसदे गुणां दी मति दा नाम सी। उहनां आपणे ग्रंथ नहीं पड़्हे, असीं उहनां दी गलत फहिमी तों प्रभावित हो के आपणे रद करने स़ुरू कर दिते।

जिवें गुरबाणी वाला राम (वेखो "गुरमति विच राम), हरि (वेखो हरि) सनातन वाला राम हरि नहीं हन। गुरमति वाला सिव वी आम प्रचारिआ जा रहिआ हिंदू मति दा सिव नहीं है। आदि बाणी ते दसम बाणी विच बहुत सारे देवी देवतिआं दे नाम आए हन पर गुरमति ने नाल नाल ही समझाइआ है के इह सनातन मति वाले देवी देवते नहीं हन बलकि इह गुण वाचक नाम हन अकाल दे जोत दे हुकम दी स़कती दे, वेखो "आदि अते दसम बाणी विच देवी देवतिआं दी अते मूरती पूजा है?। ना विचारण करके कई भोले लोग वी गलत समझ लैंदे हन। कई स़रारतौ अनसर इस दा मौका चक के गुरबाणी नूं सनातन मति नाल जोड़ दिंदे हन ते कुझ बाणी नूं रद करन दी चेस़टा वी करदे हन। नीचे गुरमति वाले सिव नूं समझाउण लई आदि बाणी विचों पंकतीआं दसीआं हन। इहनां नूं पड़्ह के वेखो की इह देवी देवतिआं दे नाम हन?

"जहु देखा तह रवि रहे सिव सकती का मेलुत्रिहु गुण बंधी देहुरी जो आइआ जगि सो खेलु॥ विजोगी दुखि विछुड़े मनमुखि लहहि न मेलु॥४॥ (म १, रागु सिरीराग, २१) – भाव जिथे वेखदा हां रवि भाव प्रकास़मान है स़िह (मूल) ते स़कती (बुध/सोझी) दा मेल। जे इह किसे मनुख बारे होवे ते सारे पासे किवें दिखेगा। गुरबाणी दा तत गिआन है के परमेसर दा बिंद (गोबिंद) सारे पासे है। स़कती है उसदा हुकम। सो इथे गल अकाल दी ते हुकम दी हो रही है।

सुरग पइआल मिरत भूअ मंडल सरब समानो एकै ओही॥ सिव सिव करत सगल कर जोरहि सरब मइआ ठाकुर तेरी दोही॥१॥ (रागु गउड़ी म ५, २०७)

"कहु गुर गज सिव सभु को जानै॥ मुआ कबीरु रमत स्री रामै॥ (भगत कबीर जी, रागु गउड़ी, ३२६) – घट अंदर वसदी अकाल दी जोत नूं कई नामां नाल संबोधन कीता गिआ है। जे गुणां विच रमिआ है भिजिआ है तां राम, गिआन/सोझी लै के हरिआ हो गिआन है अगिआनता दलिदर कारण सुकिआ होइआ नहीं रहिआ हुण तां हरि। जे हुकम दा वरतारा करदा तां स़िव।

"गुर कै बाणि बजर कल छेदी प्रगटिआ पदु परगासा॥ सकति अधेर जेवड़ी भ्रमु चूका निहचलु सिव घरि बासा॥२॥(भगत कबीर जी, रागु गउड़ी, ३३२) – घर दा अरथ हुंदा है घट/हिरदा। गुर के बाणि भाव गुणां दी सोझी, बजर कपाट हन अगिआनता दे दरवाजे घट दे, छेदी भाव छेद कर देणा खोल देणा। इह अलंकार दी भास़ा है के अगिआन मति नूं भेद के गुण जदों घट विच प्रकास़मान हुंदे हन तां हरि/राम/जोत/स़िव नूं गिआन दा मारग प्रगट हुंदा है। सकति अधेर जेवड़ी है अगिआनती दी जंजीर जिस नाल जीव ने आपणे आप नूं अगिआनता नाल बंनिआ होइआ है। स़ो जदों गुणां नाल राह दिसदा है तां घट विच सिव दा बास हुंदा है।

"माई मोहि अवरु न जानिओ आनानां॥ सिव सनकादि जासु गुन गावहि तासु बसहि मोरे प्रानानां॥ रहाउ॥ हिरदे प्रगासु गिआन गुर गंमित गगन मंडल महि धिआनानां॥ बिखै रोग भै बंधन भागे मन निज घरि सुखु जानाना॥१॥(भगत कबीर जी, रागु गउड़ी, ३३९) – माई है मति / बुध नूं समझाइआ जा रहिआ है के मैनूं होर बाहर कोई नहीं जानणा।

"काटि सकति सिव सहजु प्रगासिओ एकै एक समानानाकहि कबीर गुर भेटि महा सुख भ्रमत रहे मनु मानानां॥(भगत कबीर जी, रागु गउड़ी, ३३९-३४०)

"सिव नगरी महि आसणि बैसउ कलप तिआगी बादं॥ सिंङी सबदु सदा धुनि सोहै अहिनिसि पूरै नादं॥२॥( म १, रागु आसा, ३६०)

"आपे सुरि नर गण गंधरबा आपे खट दरसन की बाणी॥ आपे सिव संकर महेसा आपे गुरमुखि अकथ कहाणी॥ आपे जोगी आपे भोगी आपे संनिआसी फिरै बिबाणी॥ आपै नालि गोसटि आपि उपदेसै आपे सुघड़ु सरूपु सिआणी॥ आपणा चोजु करि वेखै आपे आपे सभना जीआ का है जाणी॥१२॥(रागु बिहागड़ा, म ३, ५५३)

"निंदकु गुर किरपा ते हाटिओ॥ पारब्रहम प्रभ भए दइआला सिव कै बाणि सिरु काटिओ॥१॥ (रागु टोडी, म ५, ७१४)

"सिव नगरी महि आसणु अउधू अलखु अगंमु अपारी॥८॥(रागु रामकली, म १, ८०७)

"सिव नगरी महि आसणि बैसै गुरसबदी जोगु पाई॥११॥(रागु रामकली, म ३, ९०९)

"सिव सकति आपि उपाइ कै करता आपे हुकमु वरताए॥ हुकमु वरताए आपि वेखै गुरमुखि किसै बुझाए॥(रागु रामकली, म ३, ९२०)

"चारि पदारथ लै जगि जनमिआ सिव सकती घरि वासु धरे॥ लागी भूख माइआ मगु जोहै मुकति पदारथु मोहि खरे॥३॥(म १, रागु मारू, १०१३)

"चारि पदारथ लै जगि आइआ॥ सिव सकती घरि वासा पाइआ॥ एकु विसारे ता पिड़ हारे अंधुलै नामु विसारा हे॥६॥(रागु मारू, म १, १०२७)

"हुकमे धरती धउल सिरि भारं॥ हुकमे पउण पाणी गैणारं॥ हुकमे सिव सकती घरि वासा हुकमे खेल खेलाइदा॥११॥(रागु मारू, म १, १०३७)

"वाजै पउणु तै आपि वजाए॥ सिव सकती देही महि पाए॥ गुरपरसादी उलटी होवै गिआन रतनु सबदु ताहा हे॥२॥(रागु मारू, म ३, १०५६)

"आपे सूरा अमरु चलाइआ॥ आपे सिव वरताईअनु अंतरि आपे सीतलु ठारु गड़ा॥१३॥(म ५, रागु मारू, १०८२)

"दोवै तरफा उपाईओनु विचि सकति सिव वासा॥ सकती किनै न पाइओ फिरि जनमि बिनासा॥(रागु मारू, म ३, १०९०)

"हाठा दोवै कीतीओ सिव सकति वरताईआ॥ सिव अगै सकती हारिआ एवै हरि भाईआ॥(रागु मारू, म ५, १०९६)

"गुरपरसादी सिव घरि जंमै विचहु सकति गवाइ॥ अचरु चरै बिबेक बुधि पाए पुरखै पुरखु मिलाइ॥४॥(म ३, रागु मलार, १२७६)

"जा कै करमु नाही धरमु नाही नाही सुचि माला॥ सिव जोति कंनहु बुधि पाई सतिगुरू रखवाला॥२॥ (रागु प्रभाती, म ३, १३२८)

"गुरमुखि जीअ प्रान उपजहि गुरमुखि सिव घरि जाईऐ॥ गुरमुखि नानक सचि समाईऐ गुरमुखि निज पदु पाईऐ॥(रागु प्रभाती, म १, १३२९)

"जीतहि जम लोकु पतित जे प्राणी हरि जन सिव गुर गॵानि रते॥(भट नलॵ जी, सवईए महले चउथे के, १४०१)

"जै कारु जासु जग अंदरि मंदरि भागु जुगति सिव रहता॥ गुरु पूरा पायउ बड भागी लिव लागी मेदनि भरु सहता॥ भय भंजनु पर पीर निवारनु कलॵ सहारु तोहि जसु बकता॥(भट कलॵ सहार, सवईए महले पंजवे के, १४०७)

"सगल धरम अछिता॥ गुर गिआन इंद्री द्रिड़ता॥ खटु करम सहित रहता॥३॥ सिवा सकति संबादं॥ मन छोडि छोडि सगल भेदं॥ सिमरि सिमरि गोबिंदं॥ भजु नामा तरसि भव सिंधं॥(भगत कबीर जी, रागु गोंड, ८७३) – सिवा सकति संबादं॥ मन छोडि छोडि सगल भेदं॥ सिमरि सिमरि गोबिंदं॥ भजु नामा तरसि भव सिंधं॥ (रागु गोंड, भगत नामदेव जी, ८७३)। सकति – स़कती, भाव करता, जिस दे दुआरा कीता जांदा होवे। प्रमाण "काटि सकति सिव सहजु प्रगासिओ एकै एक समानाना ॥, "अनदिनु नाचै सकति निवारै सिव घरि नीद न होई ॥ – पंकती तों भाव जिस दे घर सिव (मूल/हरि/राम) दी स़कती भाव गुरमति गिआन है, उस घर (हिरदे) विच अगिआनता दी विकारां दी नींद नहीं हुंदी। संबादं– तों भाव है विचार। समवाद भाव एक मति। सो विचारन वाली पंकती विच "सिवा सकति संबादं॥ दा भाव बणदा, सिवा (मूल/हरि/राम) दी स़कती (गुण/गिआन/विचार/गुरमति) नाल संबाद कर। मन छोडि छोडि सगल भेदं – मन ने किहड़े भेद फड़े होए ने? कुझ प्रमाण के मन ने भरम भेद फड़े होए ने "गुर कै बचनि कटे भ्रम भेद ॥। मन नूं चार भार हन "हउमै मोह भरम भै भार॥ इस भरम विच मन इह भुलिआ होइआ है के इह जोत सरूप है "मन तूं जोति सरूपु है आपणा मूलु पछाणु॥ मन भुलिआ होइआ है के उह आप जोत सरूप है अकाल दी ही जोत है। ते इही सिवा सकती (मूल दा गुरमति गिआन) लैके मन ने इह भरम छडणा है। "भजु नामा तरसि भव सिंधं॥ – भज तों भाव है प्रापत करना नामा/नाम है गिआन तों प्रापत सोझी। तरसि भव सिधं तों भाव है तरस दुआरा जो है तारण वाला रस भव है निज घर विच सिधी – सिध/साध कोई बाहरी मंत्र तंत्र साधना नहीं है मन दा अगिआनता छडणा सिधी है प्रमाण "ममा मन सिउ काजु है मन साधे सिधि होइ॥। सो सिवा स़कती दी गल तां आदि बाणी विछ वी होई है। मनुख दा मूल/हरि/राम/जोत ही सिव/सिवा है।

सो गुरमति ने आम भास़ा ते प्रचलित देवी देवतिआं अते कथा कहाणीआं राहीं लोका नूं समझाउण लई दसिआ है के राम, स़िव, हरि इह होर कोई देह धारी देवी देवते नहीं हन, देवता दा भाव हुंदा है देण वाला। ते गुरमति देण वाला देवता केवल घट अंदरला गिआन रूप जोत रूप हरि, राम, स़िव, ठाकुर, प्रभ है। उही है जो अकाल दा ही बिंद है। होर किसे देवी देवते ने कुझ नहीं देणा।

लोकां नूं इह वी भुलेखा है के देवी देवतिआं दा वरणन दसम बाणी विच आइआ है। भुलेखा उह खांदे हन जिहनां नूं गुरमति विचार दा पता ही नहीं है।

सनातन मति विच वी उहनां नूं दसे गए स़िव नूं उह आप नहीं समझ सके। वेखो नीचे इक उदाहरण है।

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मनो बुधि अहंकार चितानि नाहं
न च श्रोत्र जिहवे न च घ्राण नेत्रे ।
न च व्योम भूमिर न तेजो न वायुः
चिदानंद रूपः शिवोहं शिवोहं

~ निरवाण शटकम

Mano-buddhy-ahankāra-chittāni nāham
Na cha śrotra-jihve na cha ghrāᵇa-netre
Na cha vyoma-bhūmir na tejo na vāyuᴥ
Chidānanda-rūpaᴥ śivoἙham śivoἙham

पंजाबी अनुवाद:
मैं मन, बुधी, अहंकार जां चित नहीं हां।
मैं कंन, जीभ, नक जां अखां नहीं हां।
मैं आकाश, धरती, अग जां हवा नहीं हां।
मैं चित (सचेतना) अते आनंद दा सरूप हां।
मैं शिव हां ἔ मैं शिव हां।

हुण दसी इह देह धारी स़िव है जां नहीं?

देह सिवा बरु मोहि इहै दी विचार

देह सिवा बर मोहे दी विचार तों पहिलां चंडी समझणी पएगी किउंके इह स़बद चंडी चरित्र उकत बिलास विच आउंदा है। चंडी चरित्र दी पहिली पंकती है

आदि अपार अलेख अनंत अकाल अभेख अलख अनासा॥ कै सिव सकत दए स्रुति चार रजो तम सत तिहूं पुर बासा॥ (म १०, चंडी चरित्र उकति बिलास, स्री गुरू दसम ग्रंथ साहिब जी, ७४)

महाराज चंडी चरित्र वखिआन कर रहे ने। जे धिआन नाल वेखीए तां बहुत गहरा भेद खुलदा। कई प्रचारक चंडी स़सतर नूं आख दिंदे ने कई देवी मंन के पूजण लग जादे हन जां मुनकर हो जआदे हन, पर विचार कीतिआं देखदे हां की पता लगदा।

आदि – जो समें चक्र दे स़ुरू तों है। आदि है जिसदा जनम परमेसर दी इछा तों होइआ है। जो पैदा हो चुकिआ जा समे दे गेड़ विच है। जिवें सूरज दी किरण दा जनम सूरज तों होइआ। परमेसर आदि अंत तों परे है पर हुकम उसदी रजा विच पैदा होइआ। चंडी दा आदि है परमेसर जिसने इछा पैदा कीती है। परमेसर अनाद है इस कारण उपरोकत पंकतीआं चंडी चरित्र लिखदे आदि लिखिआ चंडी नूं अनादि नहीं। जिथे परमेसर बारे लिखिआ उथे अनादि लिखिआ है जिवें "आदि अनीलु अनादि अनाहति जुगु जुगु एको वेसु॥२८॥(म १, ६) । किरपान जां इसत्री/देवी ते इह लागू नहीं हुंदा। किरपान आदि काल तों ते अनंत नहीं है।

अपार – अपार हुंदा जिसदा पार नहीं पाइआ जा सकदा होवे। हुकम परमेसर दी इछा स़कती दा पार नहीं पाइआ जा सकदा। किरपान जां इसत्री/देवी ते इह लागू नहीं हुंदा।

अलेख – हुकम दा चंडी दा कोई लेखा नहीं हुंदा हुकम परमेसर दी इछा स़कती होण कारण उसदी किसे नूं जवाबदेही नहीं है। लेखा सानूं देणा, ना के परमेसर ने। ना उसदे हुकम ने किसे नूं लेखा देणा। जदों असीं हुकम विच आ जाणा, जदों मन लैणा के जो हो रहिआ हुकम विच हो रहिआ तां साडा वी लेखा कटिआ जाणा। बाणी विच इही समझाइआ "जिन कउ क्रिपा करी जगजीवनि हरि उरि धारिओ मन माझा॥ धरम राइ दरि कागद फारे जन नानक लेखा समझा॥४॥५॥(म ४, रागु जैतसरी, ६९८ "तेरा कीता जातो नाही मैनो जोगु कीतोई ॥। "मेरा कीआ कछू न होइ॥ करि है रामु होइ है सोइ॥४॥(भगत नामदेव जी, रागु भैरउ, ११६५) "मारै राखै एको आपि॥ मानुख कै किछु नाही हाथि॥ तिस का हुकमु बूझि सुखु होइ॥ तिस का नामु रखु कंठि परोइ ॥(म ५, रागु गउड़ी, २८१)। किरपान जां इसत्री/देवी ते इह लागू नहीं हुंदा।

अनंत – चंडी/ हुकम दा कोई अंत वी नहीं है। चंडी/ हुकम गुपत परगट तां हुंदी है पर उसदा अंत नहीं है। "जब उदकरख करा करतारा॥ प्रजा धरत तब देह अपारा॥ जब आकरख करत हो कबहूं॥ तुम मै मिलत देह धर सभहूं ॥३८९॥ परमेसर हुकम नूं लागू करदा ते आपणी मरजी विच रद वी कर सकदा। पर कोई होर उसदा अंत नहीं पा सकदा। किरपान जां किसे इसत्री/देवी ते इह लागू नहीं हुंदा।

अकाल – हुकम/चंडी आप हरेक दा काल तां है पर उसदा आपणा कोई काल नहीं। हुकम/चंडी तो कोई नहीं बच सकदा। जो होणा हुकम विच ही होणा। खालसा काल पुरख (चंडी दी हुकम दी फौज है) ते "कालु अकालु खसम का कीन्हा इहु परपंचु बधावनु॥ ἘकालुἙ चंडी/हुकम दी रचना अकाल पुरख ने कीती है। किरपान जां इसत्री/देवी ते इह लागू नहीं हुंदा।

अभेख – चंडी दा हुकम दा कोई भेख नहीं। जिहड़े सरबलोह दी किरपान नूं चंडी आखदे उहनां नूं इस वल धिआन देणा पएगा के चंडी चरित्र विच चंडी नूं अभेख कहिआ। जिसदा भेख ना होवे। जदों मुगल चड़्ह के आए तां सनातन मति वाले आखदे सी के कोई देवी आएगी साडा भला करेगी तां पातस़ाह ने किरपान नूं चंडी metaphorically कहिआ सी। महाराज ने तां फड़ाई सी बाहरले दुस़टां नाल लड़्हन लई प्रेरणा देण लई। जदों किरपान दी गल होई महाराज ने कहिआ "असि क्रिपान खंडो खड़ग तुपक तबर अरु तीर॥ सैफ सरोही सैहथी यहै हमारै पीर॥३॥। किरपान नूं किरपा देण वाली देवी मंनिआ। जदों उहनां दसिआ के मैं चंडी किसनुं मंनदां ता अभेख लिखिआ चंडी नूं। अंदरले दुस़ट (विकार) गिआन नाल सोझी नाल मारने "गिआन खड़गु लै मन सिउ लूझै मनसा मनहि समाई हे॥३॥(म १, रागु मारू, १०२२) जदों जदों ब्रहम गिआन दी विचार होणी उदों विकारां नाल लूझण लई गिआन खड़्हग दी गल होणी तलवार/किरपान/देवी नूं चंडी नहीं कह सकदे किउंकी महाराज ने अभेख कहिआ। इसनूं जंग नहीं लगणा इसने पुराणा नहीं होणा इसदा नास नहीं होणा इसदा


"आदि अपार अलेख अनंत अकाल अभेख अलख अनासा इह गुण, सरबलोह दी किरपान दे जां देवी दे नहीं हन ना हो सकदे हन। अगलीआं पंकतीआं विच महाराज दसदे ने "कै सिव सकत दए स्रुति चार रजो तम सत तिहू पुर बासा ॥ इह पंकतीआ आद बाणी नाल मेल खांदीआं "रज गुण तम गुण सत गुण कहीऐ इह तेरी सभ माइआ॥ (रागु केदारा बाणी कबीर जीउ की, ११२३) त्रै गुण माइआ इह सारे हुकम /चंडी ने ही पैदा कीते।

अगलीआं पंकतीआं विच पातस़ाह दसदे "दिउस निसा ससि सूर कै दीप सु स्रिसटि रची पंच तत प्रकासा॥ – दिउस (दिन) निसा (रात) चंद सूरज स्रिसट पंच तत इह चंडी ने ही प्रकास कीते पैदा कीते। तलवार/किरपान इह सब नहीं कर सकदी।
"बैर बढाइ लराइ सुरासुर आपहि देखत बैठ तमासा॥ ते आदि बाणी दीआं पंकतीआं "बबै बाजी खेलण लागा चउपड़ि कीते चारि जुगा॥ जीअ जंत सभ सारी कीते पासा ढालणि आपि लगा ॥२६॥(रागु आसा म १ पटी लिखी, ४३३) नाल मेल खांदीआं। इह वी परमेसर हुकम/चंडी/बिबेक बुध ने सब आप कीता।

परमेसरदी इछा स़कती नूं चंडी आखदे ने। जिवें "सिव सकति आपि उपाइ कै करता आपे हुकमु वरताए॥ हुकमु वरताए आपि वेखै गुरमुखि किसै बुझाए॥ (म ३, रागु रामकली, ९२०)। सिव परमेसर है ते उसने जो स़कती पैदा कीती है उह हुकम है। गुरमति वाला स़िव परमेसर है। दसम बाणी विच महाराज सपस़ट करदे ने "महा मूड़्ह कछु भेद न जानत॥ महादेव को कहत सदा सिव॥ निरंकार का चीनत नहि भिव ॥३९२॥ अरथ मूरख अगिआनता विच सनातन मति वाले जिसदा नाम महादेव है उसनूं सदा स़िव कही जांदे ने ते निरंकार दा माड़ा जहिआ वी भेद नहीं है। सिव दी स़कती (हुकम) ने ही सब सिरजना कीती है "हुकमी होवनि आकार हुकमु न कहिआ जाई॥ हुकमी होवनि जीअ हुकमि मिलै वडिआई॥ हुकमी उतमु नीचु हुकमि लिखि दुख सुख पाईअहि॥। दसम बाणी विच हुकम नूं चंडी/ कालका वी आखिआ। हुकम दे गुण चंडी दे गुण दसम बाणी विच दसे ने "आदि अपार अलेख अनंत अकाल अभेख अलख अनासा॥(म १०, चंडी चरित्र उकति बिलास, स्री गुरू दसम ग्रंथ साहिब जी, ७४ ।

गुणां दी विचार करना इसे लई करना के गुरमति दी गल सानूं समझ आउण।

इह समझ के चंडी चरित्र विच "देह सिवा बरु मोहि इहै सुभ करमन ते कबहूं न टरो ॥ पड़्हीए तां गिआन खड़ग धारी भगत आपणे सिवा (परमेसर/मूल) नूं बेनती करदा के मैनूं इह बर दे के सुभ करम तो ना टरां।

सुभ करम – ताव विकारां दा नास होणा। परमाण "सुभ करम करे॥ अरि पुंज हरे॥ अति सूर महा॥ नहि और लहा॥४७॥, जिहड़े विकार मन अंदर वास करके बैठे हन सूरमिआं वांग लड़्हदे हन, रकत बीज वांग हन इक विकार मारो करी पैदा हो जांदे हन, मारने औखे हन उहनां नाल लड़ाई करके जित सकां। इही सुभ करमन दा वखिआन आदि बाणी विच कबीर जि ने वि कीता है "सतु संतोखु लै लरने लागा तोरे दुइ दरवाजा॥ साधसंगति अरु गुर की क्रिपा ते पकरिओ गढ को राजा॥५॥। आदि बाणी विच इह कबीर दे मन रूपी गड़्ह ते जित अते राज दा उदाहरण है।

सो दसम बाणी विच चंडी दे अरथ समझ आ जाणा, सिव दे अरथ समझ आ जाणे तां आपे ही देह सिवा बर मोहे दा भाव समझ आ जाणा।


Source: ਗੁਰਮਤਿ ਵਾਲਾ ਸਿਵ / ਸ਼ਿਵ