Source: ਕਬੀਰ ਹਰਿ ਕਾ ਸਿਮਰਨੁ ਛਾਡਿ ਕੈ ਅਹੋਈ ਰਾਖੈ ਨਾਰਿ
कबीर हरि का सिमरनु छाडि कै अहोई राखै नारि॥ गदही होइ कै अउतरै भारु सहै मन चारि ॥१०८॥
अहोई राखै नारि दा अरथ दूजी जनानी रखणा नहीं है। मन दा अरथ चेतन मन है ना कि भार जो के मण हुंदा या चाली सेर बराबर हुंदा। गुरमति अनुसार हरि का सिमरन ना कर के दुसरी मत या माया वाली मत रख के इह चार भार "हउमै , मोह , भरम अते भै " जीव नूं जनम जनम विच सहने पैणगे गुरबाणी विच गुर अरजन देव जी ने दसिआ है "हउमै मोह भरम भै भार। नीचे गुरबाणी विच आण वाला विचार "मण स़बद समझा रिहा है। गुरमति ब्रहम दा गिआन है गुरमति है ते टीकिआं ने उपर दितिआं पंकतीआं नूं इसत्री नाल जोड़ के चार मण भार ढोण वाली खोती दस दिता।
म १॥ लख मण सुइना लख मण रुपा लख साहा सिरि साह॥ लख लसकर लख वाजे नेजे लखी घोड़ी पातिसाह॥ जिथै साइरु लघणा अगनि पाणी असगाह॥ कंधी दिसि न आवई धाही पवै कहाह॥ नानक ओथै जाणीअहि साह केई पातिसाह॥४॥