Source: ਸੰਸਾਹਰ ਸੁਖਮਨਾ (Sansahar Sukhmana)
ॴ स्री वाहिगुरू जी की फते है॥
स्री अकाल पुरखु जी सहाइ॥
संसाहर सुखमना स्री मुखवाक पातिसाही १०॥
रागु गउड़ी॥ पउड़ी ॥
प्रथमे स्री निरंकार को परनं॥
फुनि किछु भगति रीति रसि बरनं॥
दीनदइआलु पूरन अति सुआमी॥
भगतिवछलु हरि अंतरजामी॥
घटि घटि रहै देखै नही कोई॥
जलि थलि रहै सरब मै सोई॥
बहु बिअंतु अंतु नही पावै॥
पड़ि पड़ि पंडित राहु बतावै॥ १॥
सलोकु॥
गहिरु गंभीरु गहीरु है अपरं अपरु अपारि॥
जिन सिमरिआ तिन पाइआ गोबिंद क्रिसन मुरारि॥१॥
सोरठा॥
बाचहि बेद कतेब पंडित सेख बखानई॥
राहु जु पावहि बेग मनूआ हरि चरणी धरहि॥ २॥
पउड़ी॥
चार जुग महि यहि वरतारा॥
पड़ि पड़ि पंडितु देहि बीचारा॥
सीलु सचु सतिजुग महि बोइआ॥
दइआ धरमु दुआपुरि महि होइआ।।
सतु संतोखु सील सुच जाना॥
सतिजुगि दुआपुरि त्रेतै माना॥
तीन जुगा महि भगति बिलासा॥
दइआ सीलु सचु धरमु निवासा ॥२॥
सलोकु॥
संतोखी सदा सुखी सूरबीर सतिवंत॥
दइआ धरम हरि भजन ते बेग मिलहि भगवंत॥ १॥
सोरठा॥
क्रिसन मुरारी जानु निसदिनु घटि मै रचि रहिओ॥
चरणी राखहु धिआनु गहिर गंभीर गहीरु है॥ २॥
पउड़ी॥
कलिजुग बरतिओ यहि वरतारा॥
धरमु छाडि अधरम पिआरा॥
नामु छाडि आन कउ जापहि॥
धरमु तिआगि पाप महि राचहि॥
सचु किंचित झूठु परधान॥
काम क्रोध लोभ का गिआन॥
सचा डूबै झूठा तरै॥
नीच की सेवा ब्रहमण करै॥ ३॥
सलोकु॥
तीनि जुग मुहताज सति संतोखु सुच धरम के॥
अबि आइओ कलिजुग राज झूठ लोभु प्रधान है॥ १॥
सोरठा॥
दइआ धरम अरु दानु कलिजगु मै परधानु है॥
कलिजुग भी हैरानु मेरे पहरे बीतते॥ २॥
पउड़ी॥
पतनी राखै जीअ पराना॥
बेटे भोगहि बाप हैराना॥
भाई भाव लोभ को जानै॥
रहित सदा जैसे लोक बिगानै॥
काम क्रोधि लोभ हितकारी॥
नारी छाडि रचिओ परनारी॥
इस जुग महि पाखंड परताप॥
काम क्रोधἍि लोभ अरु पाप॥ ४॥
सलोकु॥
साचा सांई सच मै बसै साचा मन का बोल॥
अंतरि तेरै रवि रहिआ जिउ कसतूरी कोल ॥१॥
सोरठा॥
यहि तो कलिजुग नाहि कलिजुग के प्रभाव है॥
ए गुण कलिजुग माहि हाथो हाथ निबेड़सी॥ २॥
पउड़ी॥
सुणो संतहु यहि बचन हमारा॥
त्रै जुग महि था इहु वरतारा॥
जिन सेवक ने सेवा कीनी॥
ऊची पदवी त्रिभवण दीनी॥
करि तपसा हरि निहचै चीनी॥
ब्रहमा बिसनु महादेव कीनी॥
दुरगा माता भई प्रचंडा॥
चउदह भवन फिरै नवखंडा॥ ५॥
सलोकु॥
बिसन नामु हिरदे धरउ ब्रहमु धरमु अति चीन॥
सिंघबाहनी मात है महादेव प्रबीन ॥१॥
सोरठा॥
इहु महा तपसी जान राखे ऊची ठउर है॥
कीने जुग परवान चार जुग महि जानीऐ॥ २॥
पउड़ी॥
दस अवतार प्रभू जी कीने॥
भगतां कारनि गरभ जूनि लीने॥
बिसनु रूप धरि भगति उधारे॥
भगतां कारन असुर संघारे॥
चार बेद ब्रहमे ने कीने॥
पंडित महां गिआन करि चीने॥
पड़ि पड़ि पंडित राहु बतावै॥
सठ साखति किछु गिआनु न पावै॥ ६॥
सलोकु॥
बेद बचन मन महि धरो ब्रहमवाक परवान॥
जिन जन हरि जानिआ नही
सो महां अगिआनी जान॥
सोरठा॥
मूड़्हἍि न जानै कोइ बेद बचनु परवान है॥
जिन जन जानिआ सोइ गोबिंद के हीऐ बसै॥ २॥
पउड़ी॥
महादेव देवन को देव॥
निसदिन जन करते वा की सेव॥
जिन सेविआ तिन ही बरु पाइआ॥
पारब्रहमु प्रभू निहचै आइआ॥
चंडी माता तूं चरपटि नारी॥
तीनि लोक जिनि प्रिथवी तारी॥
सुआमी संत धिआवहि धुनि धरै॥
चारि जुग मै जै जै करै ॥ ७॥
सलोकु॥
देवी देवन पूजते अउतारन लीने साथ॥
जोगमाइआ जगतारनी कीनी दीनानाथ ॥ १॥
सोरठा॥
सिंघबाहनी मात चार जुग मै सिमरते॥
जन देवन पजूत याहि एहु माइआ जगतारनी॥ २॥
पउड़ी॥
पारब्रहमु बेअंतु अकाल॥
भगतु सुदामा कीओ निहालु॥
जन दीपन कै ग्रिहἍि भोजनु लीआ॥
दीनदइआलु क्रिपानिधि कीआ॥
कबीरु भगतु भइआ अधिकाई॥
नामदेव की हरि छान छवाई॥
संसा मेटि भइओ हरि नाई॥
सैन भगतु की प्रभु पैजु रखाई॥
रविदास दासु जन केते गना॥
पार न पावै हरि सिमरनि बिना॥
चार जुग निहचै निधि पाइआ॥
नानक जनु हरि चरनी लाइआ॥ ८॥
सलोकु॥
दीनदिआलु क्रिपा करहु सभ भगतन होइ अनंदु॥
कारज सभि पूरे पवहि पलि पलि भजहि गोबिंद॥ १॥
सोरठा॥
जुगत जगत की देखु काम क्रोध अति लोभ मै॥
टरै न करम की रेख आन धिआन भूले फिरहि॥ २॥
पउड़ी॥
मै अधीन दासनु को दासा॥
मै जनु गोबिंद की राखउ आसा॥
भूले लोक मुझ प्रभ जी कहै॥
महां अपराधी पाप मै रहै॥
भूले लोक मुझ कहै अंतरजामी॥
वा को नरक न होइगा थामी॥
इतु उत वा को धुनि नही धिआन॥
जे कोऊ कहै मुझि जानीजान॥ ९॥
सलोकु॥
जानीजान कहिते फिरहि समझति नहि मन माहि॥
अंतकाल वै नरक मै निसदिन बेमुख पाहि॥१॥
सोरठा॥
महा अपराधी लोक करनहार अउरे कहहि॥
वहु करन करावन जोग ए लोग जोगु सभि नरक के॥२॥
पउड़ी॥
सुनो लोको तुम धरो धिआनु॥
गुरु अपने कउ हरिजनु जानु॥
अहि कलिजुग यहि कलि परधान॥
पाखंडी राज भजनी भौ मान॥
नीच से ऊच ऊच नही कोई॥
काम क्रोध लोभि अति लोई॥
सभि संतो प्रभु एको जानो॥
अउर न दूजा कोई मानो ॥ १०॥
सलोकु॥
भूले काहे तुम फिरो अरु बेमुख काहे होगु॥
मै दासनि को दास हो तुम भूले काहे लोगु॥ १॥
सोरठा॥
जो तुम समझहु अउर ब्रहम हतिआ तुम कौ परै॥
कहीं न पावो ठौर दरसनि ते बेमुख भए॥ २॥
पउड़ी॥
इक संतन पाखंडि अति कीना॥
धरमु आपना अउर को दीना॥
नाम छाडि आन कउ मिलिआ॥
जनम खोइ कुटंब संगि गलिआ॥
गुर राखै पाखंडी भाउ॥
लोक पुजावै दूना चाउ॥
सिख संनिआसी मुंडीआ पूज॥
कोऊ बूझै कोऊ न बूझ॥ ११॥
सलोकु॥
छै दरसनि छती पाखंड है अपुनी अपुनी ठौर॥
राम नामु को जपति है जपने मै भी अॳरु॥१॥
सोरठा॥
जिनि संगि मिलै गुपाल सतिगुर सोई जानीऐ॥
सदा रहै क्रिपाल निसदिनु मन डोलै नही ॥२॥
पउड़ी॥
इसु कलि का तुम सुनो पर वेस॥
ब्रहमन छत्री सूद्र बैस॥
ब्रहमन छत्री की कही न जाइ॥
बैस सूद्र मै बिसनु भगताइ॥
ब्रहमण छत्री धरम की हान॥
सुच तजिआ असुच प्रधान॥
ब्रहमण छत्री ऊच ते ऊचा॥
भ्रिसट रूप रहति बेसूचा ॥ १२॥
सलोकु॥
मानस जनमु तुम को दीआ नामु दानु करहु नीति॥
धरम छोडि आनै जपहु इहु सरीर अनीति॥ १॥
सोरठा॥
धरम अपनै कउ छाडि पूजै जात मलेछ की॥
जेते होहि धनाढ सुचि किरिआ दूनी तजहि॥ २॥
पउड़ी ॥
इसु कलि मै मनु गुरू कहावै॥
करहि पाखंड ब्रहमंडि दिखावै॥
सिख संतन कउ दे उपदेस॥
छाडो चउका होइ मलेछ॥
अंदरि गइआ बाहरि भी जावा॥
सुच असुच का एको भावा॥
दइआ धरम तुम छाडो नाही॥
संत मिलै जपो मन माही॥ १३॥
सलोकु॥
करता पुरखु हीऐ धरो अरु हीअरा राखहु सुध॥
मन मै हरि हरि हरि भजहु
हरि गोबिंद सौं लुझि॥१॥
सोरठा॥
तुम काहे भूलै मूड़्ह सुचि किरिआ हरि भजन ते॥
तुम मति जानो कूड़ ए सतिगुर के प्रभाव है॥ २॥
पउड़ी॥
कलि के लोग होत अकरमी॥
छत्री ब्रहमन होत अधरमी॥
तीन जुगा महि सुच प्रधानु॥
अब सुचि किरिआ की होती हानि॥
जिनि गुर तुम को मंत्रु दीना॥
सो अपराधी बडा मति का ही हीना॥
गुर गिआन दान दान इसनान॥
सभ ते ऊचा प्रभ का नामु॥ १४॥
सलोकु॥
मै मनुछ देह कामी कुटलि अपराधी मति का हीन॥
महा नरक मै परत है लोक कहै मुझि दीन॥ १॥
सोरठा॥
महा अपराधी पतित दासनि कउ जासनु कहै॥
वा को जनम ना जाति भरम भरम भूले फिरहि॥ २॥
पउड़ी॥
सुच असुच कउ एको जानै॥
एको एकु एक ही मानै॥
भैण भाई माई अरु बापु॥
इको जानै त्रिभवनि नाथु॥
गरी छुहारा जैसा अनाजि॥
जैसा संदल तैसा पिआज॥
सरबमई का एको खेलु॥
करणहारु सो राखहु मेलु॥ १५॥
सलोकु॥
सुचि किरिआ अति मलीन दोनो एको जान॥
सरब मई महि रचि रहिओ हरि के घटि परवान॥१॥
सोरठा॥
जिनि जनु जानिआ एकु सुचἍि किरिआ वा के मनि बसै॥
कछू न वा को वेक मन मै दुबिधा ना रहै॥ २॥
पउड़ी॥
वाहगुरू जपते सभि कोई॥
या का अरथ समझै जनु सोई॥
ववा वाही अपर अपारा॥
हाहा हिरदै हरि हरि वीचारा॥
गगा गोबिंदु सिमरनु अति कीना॥
रारा रामु नामु मनि चीना॥
इन अछरन का समझनहारु॥
राखे दुबिधा होइ खुआर॥१६॥
सलोकु॥
चार अखरु तिस कउ भले मनि को धरै उठाइ॥
राम नाम के नामु परि सदा रहे लपटाइ॥१॥
सोरठा॥
चार अछरु परधानु बिरले हरिजन चीनई॥
इक राते जन परवानु इकना पड़न सुभाव है॥२॥
पउड़ी॥
वाहिगुरू जपते हरि लोगु॥
वा को हरख न काहू सोग॥
इक बाहरि भजै अंदरि मनि ध्रोह॥
झुक झुक निवहि कहावै निरमोह॥
जिहबा रटहि लैहि हरि नामु॥
अंदरहु खोटे धुनि नही धाम॥
फिरकै जोरु लोक भरमावै॥
भरमि भरमि पवै जनम गवावै॥१७॥
सलोकु॥
जिहबा रटहि अंदरो फिटहि अरु मन मै राखै ध्रोह॥
वाहगुरू वै जपत है पार न पावै कोइ॥१॥
सोरठा॥
अछरु है इहु चारु बार बार बकते फिरहि॥
कबहूं न पावै पारि जा कै मन मै दुबिधा रहै॥२॥
पउड़ी॥
जा कै मन महि दुबिधा रहै॥
चार अछरु वा को यहि कहै॥
ववा वैर धन राखै ठाइ॥
हाहा हउमै हरख मै पाइ॥
गगा गुन अवगुन सभ खोवै॥
रारा रामु नामु आवनि नही देवै॥
चार अछरु दुबिधा मै पड़ै॥
वा की पूरी कबहूं न पड़ै॥१८॥
सलोकु॥
पूरी तबहू परत है मनि मै सचु निवासु॥
इकना कपट सुभाव है
इक कपट की बाधे रास॥१॥
सोरठा॥
बिसवासघाती मित्र ध्रोह अकिरतघणा निंदक घने॥
लालच डूबे मोहि इत उत वा को कछु नही॥२॥
पउड़ी॥
वाहिगुरू के अछरु चारि॥
सतिसंगति मिलि धरो पिआरि॥
साचे मन अछरु जो पड़ै॥
वा को कबहू न संसा पड़ै॥
संसा पड़ै राखै मनि ध्रोह॥
वा की पूरी कबहू न होइ॥
अपनी खाइ बिगानी चिति धरै॥
अपने हाथ आपही मरै॥१९॥
सलोकु॥
वाहिगुरू जिहबा रटहि मन मे राखहि अउर॥
सुख भागै दुख मै परै कबहू न पावै ठउर॥१॥
सोरठा॥
वाहिगुरू सिउ खेलु मनि की दुबिधा दूरि करि॥
सदा रहो हरि मेलु गुरचरणी चितु लागि रहै॥२॥
पउड़ी॥
जो जो कथिआ राखहु परसिध॥
निराटु बाणी की सुणहु नवनिधि॥
वहु निरंकारु निरवैरु निराला॥
कान न कुंडल नैन बिसाला॥
दिसटि न आवै दूर ते दूरि॥
समझ देख तू रहे हजूरि॥
परि ते परै परै परेरै॥
है हजूरि दूरि नही नेरै॥२०॥
दोहरा॥
अंत न किनही पाइआ लख चउरासी जूनि॥
जिनि लाइआ तिनि पाइआ हरिचरनी मनि पूरि॥१॥
सोरठा॥
कुदरति ते बलि जाउ दूर ते दूरि हजूरि है॥
सचु राखहु मन माहि हरिजनु हिरख न राखई॥२॥
पउड़ी॥
मुंडीआ मुंडत होइकै रहिआ॥
निसदिनु रामु नामु चिति गहिआ॥
छुद्र असंतगुर लोपर अति करै॥
सभु अकारथ सिमरनु परहरै॥
संनिआसी सिव सिव हर जपै॥
देही साड़ि नगन होइ पचै॥
छोडि माइआ संनिआसी होइआ॥
माइआ ममता ग्रἍिहसत ते खोइआ॥२१॥
दोहरा॥
मुंडीआ मुंडत होइआ बारह टीके लाइ॥
मनि की दुबिधा ना मिटै सभो अकारथ जाइ॥१॥
सोरठा॥
जटाधारी संनिआसि आस जु राखै एक की॥
हरिजन हरि कै पासि पाखंडी परम दुख पावही॥२॥
पउड़ी॥
इक जोगी जुगति जोग की राखहि॥
मधम आसन निसदिनु वै भाखहि॥
रिध की मूरति रिध फैलावहि॥
हरि का नामु न कबहू पावै॥
एक पूज पंथ हरि हरि मै रहै॥
अपुने केस आप ही गहै॥
केस गहे हरि हाथि न आवै॥
हरि सिमरन बिनु मुकति न पावै॥२२॥
दोहरा॥
जोगी जुगति न जानीआ किस बिधि मिलै गुपालु॥
मन की दुबिधा दूरि करि बेग होइ हरि दइआलु॥१॥
सोरठा॥
सील छोडि करि ताता खाहि
बाल उपाड़हि हाथि करि॥
हरिजन ओइ ना मिलाहि
उन का मिलना दूरि है॥२॥
पउड़ी॥
इकना सिख भइआ बिउहारु॥
बाणी गावहि मिलि अखरु चारु॥
सिख संत सभु इकठे होही॥
पड़ि बाणी झुकि पैरी पवोही॥
इक साचे सिख सचु मै रहै॥
पलु पलु रामु नामु वे कहै॥
इक मारि हाक उूचे पड़्हही॥
अंदरि कपटु साचु मुखि पड़ही॥२३॥
दोहरा॥
ऊचा पड़ना किछु नही घटि अंतरि पड़्ह नामु॥
जिउ मछुली जलु पीवती
हरि हरि भजु मनि राम॥१॥
सोरठा॥
मन ही अंदरि पाप साचु भी मन मै रहै॥
ऐसा जपु तूं जापु मन मै संसा न रहै॥२॥
पउड़ी॥
हरि जी हरिजनु कै मनि आवै॥
दइआ करत किछु बार न लावै॥
जो जो करनी करतै करी॥
अपुनै हाथि लिखि मसतकि धरी॥
भावनी पांडव हिमाचलु गले॥
हरीचंद नीच जलु भरे॥
रावणि इसत्री जा की हरी॥
काटत सीसु न लागी घरी॥२४॥
दोहरा॥
हरिजन हरि कउ आराधिआ नाले लीनो बोधु॥
किछु सिमरनु किछु असरु होइ लीनो हरि प्रबोध॥१॥
सोरठा॥
आ दिन परै अरथु धरमु न आपना छाडीऐ॥
बहुरि मिलै हरि तबु जौ गति होइ सरीर मै॥२॥
पउड़ी॥
हरि सिमरनु प्रहिलाद उधारे॥
प्रहिलादि उधारि हरिनाखस मारे॥
हरि सिमरनु मानुख देह पाई॥
आनन जपो सभि तजो चतुराई॥
हरि सिमरनि जमदूति निकटि न आवै॥
हरि सिमरनि सतिसंगति पावै॥
हरि सिमरनि होति जगतु बिलासु॥
हरिजनु कै घटि हरि करै निवासु॥२५॥
दोहरा॥
सिमरनु सभ ते ऊच है जे ऊच नीच धरै धिआनु॥
हरि गुन घटि मै रचि रहिओ हरि करनी परवान॥१॥
सोरठा॥
जपति रहो दिनु राति साचे मन मो रचि रहै॥
हरिजन बलि बलि जात
जिसु सिमरनि सुखु पाईऐ॥२॥
पउड़ी॥
हरि कै सिमरनि भरमु सभु जाइ॥
हरि कै सिमरनि सदा सुख पाइ॥
हरि कै सिमरनि अनंदु सुखु होइ॥
हरि कै सिमरनि मैलु सभ खोइ॥
हरि कै सिमरनि कोट पाप जाहि॥
हरि कै सिमरनि बसै मन माहि॥
हरि कै सिमरनि दूत दुख जाहि॥
हरि कै सिमरनि परमगति पाहि॥२६॥
दोहरा॥
सिमरि सिमरि जन सिमरते सिमरत है मन माहि॥
इक मनि होइ कै सिमरना साची पदवी पाहि॥१॥
सोरठा॥
सिमरनु करहु निसंग रंगु प्रभू का देखि लेहु॥
ना तुम करहु दुरंग हरिजनु हरखु न राखई॥२॥
पउड़ी॥
मुसलमानु मुसलमु ईमानु॥
करे बंदगी पड़ै कुरानु॥
सिदकु राखि निवाजि गुजारै॥
तीहे रोजे फरजु उतारै॥
दीनदार सिदकु आल आकीदै॥
पल पल दम दम नामु मनि चीदै॥
सिफत पैकंबर की राखै मन माहि॥
चार यार पर बलि बलि जाहि॥२७॥
दोहरा॥
मुसलमान सोई जानीऐ कलमां पड़्है मन माहि॥
दीन मुहंमद के नाम परि
हरिजनु बलि बलि जाहि॥१॥
सोरठा॥
काफर बेईमानु दीन दुनीआ मैं जरदरू॥
हिंदू मुसलमान सभ करनी प्रवानु है॥२॥
पउड़ी॥
इसु कल महि सुचि किरिआ जानु॥
ब्रहमन सुचि किरिआ परवानु॥
बकरा मारै जीव ते खोवै॥
लाइ प्रेम मास कउ धोवै॥
जब वहु मासु भया त्यार॥
तब जेवण बैठे सभि कूड़िआर॥
देखहु चउका भिटै काइ॥
हाड चाम खाणे ते जाइ॥२८॥
दोहरा॥
चउका देहि बनाइकै ब्रहमन अति बलवान॥
हाड चचोड़हि काग जिउ
लपटि रहे जिउ सुआन॥१॥
सोरठा॥
हाड मासु तुम खाहु सुचि किरिआ तुम ढूंढते॥
हरिजन इहु सुच नाहि
धरम अपने कउ खोवते॥२॥
पउड़ी॥
हरि की करनी राखहु आस॥
हरि की करनी मनु बिसवासु॥
हरि की करनी रहि निरमोह॥
हरि की करनी न राखै मनि ध्रोह॥
हरि की करनी जपु तपु करै॥
हरि की करनी नरकि न परै॥
हरि की करनी रहै सुख वासु॥
हरि की करनी फिरै उदास॥
हरि की करनी जोगु कमावै॥
हरि की करनी चितु प्रभु सिउ लावै॥
हरि की करनी राजु सुभ भइआ॥
बिनु सिमरनु अकारथ गइआ॥
हरि की करनी जसु संसारि॥
हरि की करनी दरदि बिदार॥
हरि की करनी धरति आकासु॥
हरि की करनी जल पउन निवासु॥
हरि की करनी भजनु नित होइ॥
हरि की करनी परम बुधि होइ॥
हरि की करनी भइओ न भिखारी॥
हरि की करनी भइओ उपकारी॥
हरि की करनी मैलु सभु खोवै॥
हरि की करनी बीजु धरमु बोवै॥
हरि की करनी दस अउतार॥
हरि की करनी मुकति दुआर॥
हरि की करनी स्रिसटἍि उपजाइ॥
हरि की करनी सतिगुरि पाइ॥
हरि की करनी चरनी चितु लाइ॥
हरि की करनी सुरग महि जाइ॥
हरि की करनी नरकि नहि पाइ॥
हरि की करनी कारजु सभु होइ॥
हरि की करनी पाप मैलु खोइ॥२९॥
दोहरा॥
हरि करनी परवानु है अरु करन करावनि जोगु॥
जो किछु कीआ सु हरि कीआ
निसदिनु हरिजन भोगु॥१॥
सोरठा॥
हरिजन हरि आराध कारज सभि पूरे पवहि॥
महा तपसी साधु हरि चरणी चितु लाग रहै॥२॥
पउड़ी॥
हरि की करणी साध भउ तजै॥
हरि की करणी साध हरि रचै॥
कलि कलेस साधू जनु खोवै॥
घरि घरि तनु तनु निसदिनु जो वै॥
साधु की निंदा नरक महि परही॥
हरि की करणी सिर परि धरही॥
चारि जुगि संग्रामु अति भइआ॥
इहु कलिजुग अचरज महि रहिआ॥३०॥
दोहरा॥
राम नामु हिरदै धरहु दइआ धरम अधीन॥
राजु तेजु संग्रामु करहु हरिजन इहु मति लीन॥१॥
सोरठा॥
नामु दानु इसनानु हरि कीता चिति लाइकै॥
हरि करनी परवानु चारि जुग महि जानीऐ॥२॥
पउड़ी॥
इक ध्रोही मित्र सै करहि प्रीति॥
मित्र राखै धरम की रीति॥
ध्रोही ध्रोह करि मित्र को खाइ॥
मित्र कै हरि सदा सहाइ॥
ध्रोही खाइ अउर मनि घड़ै॥
खाति खाति वहु खात मै पड़ै॥
मित्र राखै हरि की आस॥
खरचि खजाना दूनी रासि॥३१॥
दोहरा॥
मित्र मनि आनंद है ध्रोही कै ध्रोह धिआन॥
मित्र कै मनि हरि वसै ध्रोही बेईमान॥१॥
सोरठा॥
अकिरतघणु गइआ निरासि
बिसवासघाती भी जाइगा॥
निंदक जिमीन असमानि
ईहां ऊहां न होइसी॥२॥
पउड़ी॥
सतिजुगि सत सुर भगति कमावै॥
त्रेतै जपु तपु जोग लिव लावै॥
दुआपुरि दरसनु हरि संत का कीना॥
वाहगुरू साचा मनु लीना॥
कलिजुगि देखहु होत संग्रामु॥
झूठे चित सिउ जपै हरि नामु॥
त्रै जुग था खंडे की धारु॥
कलिजुग क्रोध लोभ अहंकारु॥३२॥
दोहरा॥
सतिजुग संसा ना रहै अरु त्रेतै तनु मनु रामु॥
दुआपरि दरसनु मै रहै कलिजुग मै संग्रामु॥१॥
सोरठा॥
सतिजुग सतु संतोखु अरु त्रेतै जपु तपु चीनई॥
दुआपरἍि कीने चोजु कलिजुगि नामु दानु संग्राम है॥२॥
पउड़ी॥
सिख संतो मुखि बोलहु रामु॥
साधसंगति करनी परवान॥
साधु बिरहु कीआ प्रभु पाइआ॥
साधु बिरहु कीआ हरिजनु मनि लाइआ॥
इसु कलि महि भइओ संग्रामु॥
बिधनै ठटी करनी परवानु॥
सतिगुर की जो निंदा करै॥
माइ बाप कै आगै मरै॥३३॥
दोहरा॥
पूरी वा की न पवै संता कहिओ न मानु॥
बिधनै ठटी सु होइ है न छोडै मुखि नामु॥१॥
सोरठा॥
लोभ पाप सभ झूठु है इस कलि मै संग्रामु॥
हरिजन हिरदै हरि बसै ना छोडै हरि नामु॥२॥
पउड़ी॥
बिउहार चलण कलि मै है ऐसा॥
अंदरि बहै कै लिआवै पैसा॥
लै पैसा घरि मै जो आवै॥
महा आनंद घरि मै सुख पावै॥
मन अपनै कउ बहि समझावै॥
जो दीजै साह तौ कुटंब किआ खावै॥
साह आए कउ संडिआ कीआ॥
जो किछु था तुमरा हम दीआ॥३४॥
दोहरा॥
देखै साहु पैसे गए कीजै कउन उपाउ॥
अंदरि बहि पैरी पवहि तू सउदा मतु गवाउ॥१॥
सोरठा॥
पैसे तेरै ठाइ देने कउ किछु घर नही॥
काट बाट कर माहि तुम ते हम फारक भए॥२॥
पउड़ी॥
असुरराज इहु कलि मै भइआ॥
जपु तपु सतु छीन हुइ गइआ॥
थोरे दिन असुरन का जोरा॥
भगति परतापु होत नही थोरा॥
होइगो संग्रामु संत भी देखै॥
करना प्रभ का होइगा लेखै॥
लिखिआ लेखु आपन हाथि॥
धरम प्रगासु जाइगा पापु॥३५॥
दोहरा॥
साधो सिदति ना करो अंतु न वा का देखु॥
अंतु देखि दुखु पावसी टरे न करम की रेख॥१॥
सोरठा॥
खेलु लेहु दिनचारि बहुरि न खेलनि होइसी॥
उडनु होइगो छारु ढूंढे हथि न आवसी॥२॥
पउड़ी॥
इस कलि मै जपु नामु का जापि॥
निहचै होइ साचा मनि थापि॥
बिनु हरि नामु धरमु नही कोई॥
अंति कालि सिमरनि गति होई॥
निहचै होइ सिमरहु मनु माहि॥
गुरु चरणि लागि पाप सभि जाइ॥
लाख सिआनप करि करि देखै॥
बिनु हरि सिमरन कछू न लेखै॥३६॥
दोहरा॥
हरि का मिलणा दूरि है दुरमति मनहु न जाइ॥
दुरमति जाइ तौ हरि मिलै हरिजन हरि कै पाइ॥१॥
सोरठा॥
हरि का नामु तुम लेहु जिउ मछुली जलु पीवती॥
हरि सिउ राखु सनेहु जिउ नीरु मीतु मछुली करै॥२॥
पउड़ी॥
अंम्रित वेलै करि इसनानु॥
मनि ठहरावहु धुनि धरि धिआनु॥
ऐसा जपना जपहु रे भाई॥
अंति कालि हरि होइ सहाई॥
हरि चरणी ऐसा चितु लावहु॥
मनसा धारि हरि नामु धिआवहु॥
धिआनु लाइ निसचै होइ रहो॥
प्रीति नीत नित चितु मै लहो॥३७॥
दोहरा॥
प्रीति करहु चितु लाइ कै इक मनि होइकै जापि॥
करि इसनानु सुखमनु पड़ो निहचै मनि कउ थापि॥१॥
सोरठा॥
नामु दानु इसनानु बिनु करमा नही पाईऐ॥
संतसंगति परवानु सुच धिआनु नही छाडीऐ॥२॥
पउड़ी॥
जापहु अपरं अपार निरंकार॥
तूं सरब जीआ का पालनहार॥
तूं अलखु लेख का धनी॥
तूं बेअंत तेरा अंतु किआ गनी॥
तूं सरब निधानु प्रीतमु हरि राइआ॥
तूं सुखदेउ सेव करि पाइआ॥
तूं भगतवछलु हरि अंतरिजामी॥
तूं हरि दिआलु अकाल निहाल जिउ धामी॥३८॥
दोहरा॥
तूं सितूनु बेचमून मै मू न पड़्हंतीआ होइ॥
हरिजनु सिमरनु सिमर लेहु मन की दुरमति खोइ॥१॥
सोरठा॥
लखि चउरासी जाति तेरा अंतु न किनही पाइआ॥
जपत रहो दिनराति सतिगुरि संसा मेटिआ॥२॥
पउड़ी॥
तूं आपे दाता आपे भुगता तूं आपे मिहर करंता॥
तूं आपे जोगी तूं आपे भोगी तूं आपे भोग करंता॥
तूं आपे अलखु अलेखु बिधाता तूं आपे करहि सु होई॥
तूं आपे दरि दरि फिरहि फिरावहि
तूं आपे सुख मै होई॥
तूं आपे साहु आपे ही तसकर
तेरी कुदरति कउ बलि जाई॥
तूं आपे बांधहि तूं आपे छोडहि
तूं आपे करहि सुभाई॥
तूं आपे साहु आपे बापारी
तूं आपे भइआ भिखारी॥
तूं आपे पुरखु अलेख कहावहि
तूं आपे सुंदर नारी॥३९॥
दोहरा॥
तूं अपने रंगि आपहि राता
तेरी कुदरति कउ बलि जाई॥
हरिजन हरि हरि हिरदै भजहु
जन नानक एकु मनाई॥१॥
सोरठा॥
जपना जपो मन माहि इक मन होइकै धिआईऐ॥
इकु बिनु दूजा नाहि हरि का नामु न छोडीऐ॥२॥
पउड़ी॥
जिसु राखहि तूं देहि वडिआई॥
जिसु राखहि तूं सदा सहाई॥
जिसु राखै तूं रहै सुमेरु॥
सिमरहि मुनिजन जछु कुमेरु॥
जिसु राखहि तूं आदि जुगादी॥
हरिनाखसु मारिओ रखिओ प्रहलादी॥
जिसु राखहि तूं आपणा जानि॥
वा कउ कबहु न होवै हानि॥४०॥
दोहरा॥
हरि का नामु हिरदै धरो प्रभु जी लेहु पराखु॥
करि इसनान सुखमनि पड़्हो निहचै मन को थापु॥१॥
सोरठा॥
जपु तूं इकु मनि होइ आन नामु जपना नही॥
मानस जनमु है देव बिनु हरि भजन न पाईऐ॥२॥
पउड़ी॥
न रटन मै॥ न जटन मै॥
न घटन मै॥ न जतन मै॥
न डिंभ के डिढाइ मै॥ न सास के चड़्हाइ मै॥
चतुर सुजान है॥ इसनानु जलु धोइ है॥
बहुत बात मन गोइ है॥ देही साड़ि खोइ है॥
न डिंभ के डिढाइ मै॥ न अनेक बहु गाइ मै॥
न बजंत्र के बजाइ मै॥ न देही धूरि लाइ मै॥
न माला के फिराइ मै॥ है साचु के दिड़ाइ मै॥
हरि पावनै की एही बात॥ सुच साचु हीऐ सांति॥
नही सोवहि जे प्रभाति॥
हरिजनु हरि मिलहि आपु॥४१॥
डखणा॥
मनि ही अंदरि ढाहि बिनु देखे महबूब के॥
जबही होइ निबाहु हरिजन सचु मै रचि रहे॥१॥
पउड़ी॥
इसु जुग मै पाग हाथि दै राखै॥
निसदिनु रामु नामु यहु भाखै॥
इन माइआ नै मुनीजनि मोहे॥
एहु कलि मै सेवक माइआ के होए॥
माइ बापु भाई सब माइआ॥
अउरत प्रीति भैन अरु भाइआ॥
जब माइआ तब आदर होइ॥
बिनु धनु बात न पूछै कोइ॥४२॥
दोहरा॥
धनु माइआ किआ चाहते
माइआ मोहु सभ कूरि॥
हरिजन हरि के नामु बिनु
होत जात सभ धूरि॥१॥
पउड़ी॥
सुनहु संतहु तुम साची बानी॥
गुरु अपने कउ हरिजनु जानी॥
जा हरि होवै सदा सहाई॥
धरम बिलासु परमगति पाई॥
पाखंड छाडि ब्रहमंडि मनि धरो॥
आन कौ छाडि सिमरनु नित करो॥
सुचि किरिआ अरु हरि हरि भजो॥
झूठा पैरी पउणा तजो॥४३॥
दोहरा॥
जो तुम साचे सिख हो तजहु कुबुधी मति॥
हरिजनु हरि का भजनु भजो
तब होइ तुमारी गति॥१॥
सोरठा॥
जो तुम राखहु साचु
बचनु हमारा मानि लेहु॥
गुर का होइ सरापु
जो तुम होहु अधरम महि॥२॥४३॥१॥
वाहिगुरू जी का खालसा॥
वाहिगुरू जी की फतहि॥
(लिखती पोथीआं, पटने अते पटिआले वाले दसम सरूप)