Source: ਠਾਕੁਰ ਅਤੇ ਪ੍ਰਭ

ठाकुर अते प्रभ

गुरबाणी विच ठाकुर लफ़ज़ बहुत वार आइआ है पर की असीं जाणदे हां के ठाकुर कौण है? किथे वसदा? अज गुरबाणी तों इसदी खोज करांगे।

हरि आपे ठाकुरु हरि आपे सेवकु जी किआ नानक जंत विचारा॥१॥ – हरि ही राम, हरि ही ठाकुर है ते हरि सेवक वी कहिआ है इहनां पंकतीआं विच। हरि अते राम कौण हन असीं विसथार विच इस बारे लिखिआ है वेखो "हरि अते "गुरमति विच राम । फेर इसदा भाव इह बणिआ के ठाकुर कोई दुनिआवी मनुख जां कोई देवी देवता नहीं। इह अकाल रूप गिआन दी जागदी जोत घट अंदर वसदी जीव दी आपणी होंद है। इही पुरख निरंजन है "सो पुरखु निरंजनु हरि पुरखु निरंजनु हरि अगमा अगम अपारा॥ भाव इह माइआ, ममता हउमै (मैं) तों परे अकाल (काल तों परे) है। जिवें समुंदर दी बूंद वख वख करके वेखीए। समुंदर दी हर बूंद समुंदर ही है। ठाकुर सारिआं विच समाइआ होइआ है इसदा इक होर परमाण गुरबाणी विच मिलदा है "ठाकुरु सरबे समाणा॥ किआ कहउ सुणउ सुआमी तूं वड पुरखु सुजाणा॥१॥, "जगजीवन अबिनासी ठाकुर घट घट वासी है संगा॥ – अभिनासी जिसदा कदे नास नहीं हुंदा उह घट अंदर ही हमेस़ा संग है। इह गिआन दी अडोल अवसथा वी है जो गुणां नूं मुख रखिआ नाम (गुरमति गिआन तों मिली सोझी) दी प्रापती तों घट (बुध, हिरदे) अंदर ही बणनी है "मेरे ठाकुर पूरै तखति अडोलु॥ गुरमुखि पूरा जे करे पाईऐ साचु अतोलु॥१॥। इस ठाकुर नूं ही मन विच वसा के रखणा है "जहां बीसरै ठाकुरु पिआरो तहां दूख सभ आपद॥ जह गुन गाइ आनंद मंगल रूप तहां सदा सुख संपद॥१॥

ठाकुर स़बद ठाक तों बणिआ है। ठाक दा अरथ हुंदा है रुकाव। विकार मनुख दी खुस़ी, अनंद, मुकती (विकारां तों) विच रुकावट हन। ठाकुर इहनां रुकावटां नूं दूर करके मुकती दी राह दसदा है। जप बाणी विच मंनै दीआं पंकतीआं हन जिहनां दा भाव है मंन लैण उपरंत। गुरमति मन नूं समझाउण लई गिआन है के मन आप ही जोत सरूप है "मन तूं जोति सरूपु है आपणा मूलु पछाणु॥ मन हरि जी तेरै नालि है गुरमती रंगु माणु॥ मूलु पछाणहि तां सहु जाणहि मरण जीवण की सोझी होई॥ गुरपरसादी एको जाणहि तां दूजा भाउ न होई॥ मनि सांति आई वजी वधाई ता होआ परवाणु॥ इउ कहै नानकु मन तूं जोति सरूपु है अपणा मूलु पछाणु॥५॥", जदों मन ने मंन लिआ फेर आखदे "मंनै मारगि ठाक न पाइ॥ मंनण उपरंत मुकती (आनंद दी अवसथा) दे मारग ते कोई विकार ठाक (रोक) नहीं सकदा। "अंतर की बिधि तुम ही जानी तुम ही सजन सुहेले॥ सरब सुखा मै तुझ ते पाए मेरे ठाकुर अगह अतोले॥१॥भए किरपाल ठाकुर रहिओ आवण जाणा॥ गुर मिलि नानक पारब्रहमु पछाणा॥ – जदों ठाकुर (रुकावट हटौण वाला) भाव गिआन दी जोत दी किरपा भाव गुरप्रसाद प्रापत हुंदा है तां आवण जाणा, जीवन मरन दा भै मुक जांदा है "मेरा ठाकुरु सचु द्रिड़ाए॥ गुरपरसादी सचि चितु लाए॥ सचो सचु वरतै सभनी थाई सचे सचि समावणिआ॥३॥ ते गुरबाणी ने सच समझाइआ है "सचा सौदा (सच वापार)। गुर (गुण) मिलण ते ही पारब्रहम दी पछाण हुंदी है। वेखो "ब्रहम, ब्रहमा, पारब्रहम, पूरनब्रहम

तूं दाना ठाकुरु सभ बिधि जानहि॥ ठाकुर के सेवक हरि रंग माणहि॥ जो किछु ठाकुर का सो सेवक का सेवकु ठाकुर ही संगि जाहरु जीउ॥३॥" – मन (जीव दी अगिआनता) वी आप ही जोत सरूप है पर अगिआनता वस भुला बैठा ता ही मन है। जदों इह सेवक बण गिआन लैंदा है तां विकार घटदे जांदे हन ते इह आप सेवक तों ठाकुर हो जांदा है मनु (मंन) जांदा है। जो गिआन जो सोझी ठाकुर दी है उही सेवक दी है। घट अंदर गिआन/सोझी भाव नाम ही खजाना है। "अपुनै ठाकुरि जो पहिराइआ॥ बहुरि न लेखा पुछि बुलाइआ॥ तिसु सेवक कै नानक कुरबाणी सो गहिर गभीरा गउहरु जीउ॥ अगलीआं पंकतीआं हन "सभ किछु घर महि बाहरि नाही॥ बाहरि टोलै सो भरमि भुलाही॥ गुरपरसादी जिनी अंतरि पाइआ सो अंतरि बाहरि सुहेला जीउ॥१॥ – असल विच असीं सारे जीव घट अंदर गिआन सोझी नाम लभण दी थां संसार (बाहर) वसतूआं भालदे हां इस लई विकारां भरमां विच फसदे हां।

हरि, राम, ठाकुर, प्रभ, गोपाल, सचा साहिब इह सारे ही गिआन रूप घट अंदर जगदी जोत दे ही नाम हन जो जीव नूं मारग दरस़क बण सहाई हुंदे हन। जिवें जिवें गुण प्रभास़ित होए ने उदां से नाम वरते गए हन "जेता कीता तेता नाउ॥, जे हरि दा नाम धिआ के (धिआन विच रख के) हरिआ होण दी गल होई तां हरि वरतिआ। जे गुणां विच रमे होए दी गल होई तां राम "राम तुम आपे आपि आपि प्रभु ठाकुर तुम जेवड अवरु न दाते॥ जनु नानकु नामु लए तां जीवै हरि जपीऐ हरि किरपा ते॥। जे साचे मारग ते जांदिआ रुकावट ठाके तां ठाकुर। प्रितपाल करे तां प्रभ। जे पालणा करे तां गोपाल। जे दातां देवे तां दाता। जे कुझ देवे तां देवता। इह सारे ही अलंकार वरते गए हन गुर (गुणां) तों प्रापत नाम (सोझी) दे, अंम्रित दे, गिआन दे घट/हिरदे/देही विच प्रकास़ दे। "मनु तनु तेरा धनु भी तेरा॥ तूं ठाकुरु सुआमी प्रभु मेरा॥ जीउ पिंडु सभु रासि तुमारी तेरा जोरु गोपाला जीउ॥१॥। गुरबाणी विच होर वी परमाण मौजूद हन जिवें "जा की सरणि पइआ गति पाईऐ॥ सासि सासि हरि नामु धिआईऐ॥ तिसु बिनु होरु न दूजा ठाकुरु सभ तिसै कीआ जाई जीउ॥३॥ तेरा माणु ताणु प्रभ तेरा॥ तूं सचा साहिबु गुणी गहेरा॥ नानकु दासु कहै बेनंती आठ पहर तुधु धिआई जीउ॥। हुण इह गल मैं छड के समझ आउंदी है पर जीव मैं छडण तों भजदा है, हंकार नहीं छडणा चाहुंदा गिआन लैण लई सिर बेचणा पैंदा बदले विच नाम (सोझी) दा सौदा लैण लई "हमरा बिनउ सुनहु प्रभ ठाकुर हम सरणि प्रभू हरि मागे॥ जन नानक की लज पाति गुरू है सिरु बेचिओ सतिगुर आगे॥ अते "मनु बेचै सतिगुर कै पासि॥ तिसु सेवक के कारज रासि॥। सिर बेचणा ही सचा वापार है। वापार दा अरथ ही लैण देण है। असीं कुझ दिंदे हां बदले विच कुझ मिलदा है। देणी मैं है, मन, अगिआनता। ते मिलणा है नाम (गिआन/सोझी/गुर/गुण)। "भए किरपाल ठाकुर रहिओ आवण जाणा॥ गुर मिलि नानक पारब्रहमु पछाणा॥ – जदों घट अंदर वसदे ठाकुर दी किरपा होई तां पाप पुंन, सुरग नरक दी चिंता मुक जाणी। गुणां नूं मिल के प्रापत करके ही पारब्रहम दी पछाण होणी। होर समझण लई वेखो "ब्रहम, ब्रहमा, पारब्रहम, पूरनब्रहम

हमरा ठाकुरु सतिगुरु पूरा मनु गुर की कार कमावै॥ हम मलि मलि धोवह पाव गुरू के जो हरि हरि कथा सुनावै॥२॥ – सति है सच (नाम/सोझी/गिआन) जो कदे नहीं बदलदा, खतम हुंदा किउंके सच काल तों परे है। गुरू के पाव गुरू के चरण हन उसदे गुण। जदों गुरू नूं निरंजन, अकाल मूरत दसिआ ते कहिआ "रूपु न रेख न रंगु किछु त्रिहु गुण ते प्रभ भिंन॥ ताहीं उसदी बदेही (हाड मास तों बणिआ सरीर) नहीं है नां ही उह पथर दी मूरती विच वसदा। सो भाव बणदा हमरा ठाकुर भाव मेरा ठाकुर, सतिगुर पूरा भाव सचे दे गुण पूरे हन। मनु (मंन) गुर (गुण) की कार (कहिआ) कमावै (प्रापत करे)। "पतित पावन ठाकुर नामु तुमरा सुखदाई निरमल सीतलोही॥ गिआन धिआन नानक वडिआई संत तेरे सिउ गाल गलोही॥ – भाव ठाकुर दा नाम (सोझी) पतित पावन निरमल (मल रहित) है विकार रहित है।

रागु गउड़ी महला ५॥ सहजि समाइओ देव॥ मो कउ सतिगुर भए दइआल देव॥१॥ रहाउ॥ काटि जेवरी कीओ दासरो संतन टहलाइओ॥ एक नाम को थीओ पूजारी मो कउ अचरजु गुरहि दिखाइओ॥१॥ भइओ प्रगासु सरब उजीआरा गुर गिआनु मनहि प्रगटाइओ॥ अंम्रितु नामु पीओ मनु त्रिपतिआ अनभै ठहराइओ॥२॥ मानि आगिआ सरब सुख पाए दूखह ठाउ गवाइओ॥ जउ सुप्रसंन भए प्रभ ठाकुर सभु आनद रूपु दिखाइओ॥३॥ना किछु आवत ना किछु जावत सभु खेलु कीओ हरि राइओ॥ कहु नानक अगम अगम है ठाकुर भगत टेक हरि नाइओ॥४॥१५॥१३६॥ – देव दा भाव हुंदा है देण वाला। जो कुझ देवे। गुरमति ने घट अंदर वसदे गिआन दी जोत ठाकुर नूं, प्रभ नूं हरि, राम नूं ही देव मंनिआ है। जदों सतिगुर भाव सचे दे गुण प्रापत हो गए गुण विचार के समझ के धिआ (धिआन विच रख) के उदों सहज अवसथा बण जाणी। फेर जिहड़ी विकारां दी, भै दी डर दी जेवरी मनुख दे पैरां विच बंनी होई है कटी जांदी ते जीव दास बण जांदा। दास उह हुंदा है जो बिनां सवाल कीतिआं हुकम नूं मंने। जिहड़ा एक (एका, एकता अकाल नाल) दा पुजारी (चाह वान, खोजी) सी उसनूं सच दा मारग दिखाइआ। उस दास ने ही अंम्रित (सदीव रहिण वाला) नाम (गिआन/सोझी) प्रापत करनी। ठाकुर ने आगिआ (हुकम) मंन इह अवसथा अंदरों ही बणाउणी। ठाकुर ने ही सदा रहिण वाले आनंद दी अवसथा बणाउणी। फेर इह समझ आउणा के बाहरी बदेही, सरीर कपड़ रूप है पर जोत अमर है जिसदा कदे नास नहीं हुंदा। ना कुझ आउंदा है ना कुझ जांदा है इह तां हरि दा रचिआ खेल है। इह समझ किवें आउंदी इसदे गुरबाणी विच कई परमाण हन जिवें "माइआ मोहु सरब जंजाला॥ मनमुख कुचील कुछित बिकराला॥ सतिगुरु सेवे चूकै जंजाला॥ अंम्रित नामु सदा सुखु नाला॥६॥ गुरमुखि बूझै एक लिव लाए॥ निज घरि वासै साचि समाए॥ जंमणु मरणा ठाकि रहाए॥ पूरे गुर ते इह मति पाए॥७॥

ठाकुर दी सोझी प्रापत गुरसबद दी विचार राहीं ही होणी है। गुरबाणी ने कदी वार आखिआ है के हरेक घट (हिरदे/निज घर) विच हरि दा, जोत दा, राम दा, ठाकुर दा वास है। इस गिआन नाल ही दुखां तों, विकारां तो निबेरा होणा है। "गुरपरसादी बूझि ले तउ होइ निबेरा॥ घरि घरि नामु निरंजना सो ठाकुरु मेरा॥१॥ बिनु गुरसबद न छूटीऐ देखहु वीचारा॥ जे लख करम कमावही बिनु गुर अंधिआरा॥१॥। ठाकुर तां सदा ही संग है हदूर है असीं उसनूं दूर मंन रहे हां किथे किथे भटक के लभ रहे हां "जो ठाकुरु सद सदा हजूरे॥ ता कउ अंधा जानत दूरे॥। ठाकुर किस तरीके नाल विखे, किवैं समझ आवे। जो निराकार है उह गुणां दी विचार राहीं गुणां राहीं प्रापत हुंदा है। जिवें हवा है पर दिसदी नहीं, उसदे गुण हन के असीं पते हिलदे वेख सकदे हां, साह लैंदे हां, सानूं गरमी सरदी दा इहसास हवा कारण हुंदा है। उसे तरीके नाल ठाकुर नूं उसदे गुणां राहीं समझिआ, वेखिआ ते महिसूस कीता जा सकदा है। जिसनूं ब्रहम दा गिआन है गुरमति ने उसनूं ही ठाकुर कहिआ है "ब्रहम गिआनी सरब का ठाकुरु॥ भाव गिआन नाल ही सुतिआं नूं जगाउण दा कंम ब्रहम गिआनी करदा है जिवें भगतां ने गुरुआं ने कीता है। पर मनुख मनमति (चेरी/ चेली।दासी) मगर लग के ठाकुर नूं नहीं महिसूस करदा "चेरी की सेवा करहि ठाकुरु नही दीसै॥ पोखरु नीरु विरोलीऐ माखनु नही रीसै॥७॥ – दुध (गुरमति गिआन) नूं छड के पोखर (छपड़ी) विच मधाणी मार के मखण नहीं निकल सकदा। गुरमति दुध है जिस विचों नाम (सोझी) मखण वांग है। असीं मनमति आपणे बुध दे भांडे विचों साफ नहीं कीती ताहीं गुरमति दी सोझी नहीं प्रापता हुंदी। गुरमति दा आदेस़ है के "भांडा धोइ बैसि धूपु देवहु तउ दूधै कउ जावहु॥ दूधु करम फुनि सुरति समाइणु होइ निरास जमावहु॥१॥

हरि आपे ठाकुरु हरि आपे सेवकु जी किआ नानक जंत विचारा॥१॥ तूं घट घट अंतरि सरब निरंतरि जी हरि एको पुरखु समाणा॥ इकि दाते इकि भेखारी जी सभि तेरे चोज विडाणा॥ तूं आपे दाता आपे भुगता जी हउ तुधु बिनु अवरु न जाणा॥ तूं पारब्रहमु बेअंतु बेअंतु जी तेरे किआ गुण आखि वखाणा॥ जो सेवहि जो सेवहि तुधु जी जनु नानकु तिन॑ कुरबाणा॥२॥ – इह पंकतीआं तां हर सिख जिसने खंडे दी पहुल लई है जिसनूं अंम्रित कहि के प्रचारिआ जा रहिआ है, रोज पड़्हदे हन पर इहनां बारे विचार कौण कर रहिआ है? अंम्रित गुरमति ने किस नूं मंनिआ है? जदों तक गुरमति दी विचार नहीं करदे उदों तक कोई लाभ नहीं "पोखरु नीरु विरोलीऐ माखनु नही रीसै॥ वाली गल है। गुरमति ने तां सपस़ट ही कहिआ है "आवन आए स्रिसटि महि बिनु बूझे पसु ढोर॥नानक गुरमुखि सो बुझै जा कै भाग मथोर॥१॥। गुरबाणी ने गुर दी सेवा स़बद विचार नूं दसिआ है। सेवक उह है जो तत गिआन लवे। दास उह है जो आगिआ मंने। "सेवकु दासु भगतु जनु सोई॥ ठाकुर का दासु गुरमुखि होई॥ जिनि सिरि साजी तिनि फुनि गोई॥ तिसु बिनु दूजा अवरु न कोई॥१॥

उदमु करउ करावहु ठाकुर पेखत साधू संगि॥ हरि हरि नामु चरावहु रंगनि आपे ही प्रभ रंगि॥१॥ मन महि राम नामा जापि॥ करि किरपा वसहु मेरै हिरदै होइ सहाई आपि॥१॥ – साधू संग पेखण लई साधू कौण है इह पता होणा जरूरी है। साध बाहर नहीं हुंदा। मन असाध है विकारां मगर भजदा। नाम (सोझी) प्रापत करके मन ने ही साधिआ जाणा ते साध होणा "ममा मन सिउ काजु है मन साधे सिधि होइ॥ मन किवें साधिआ जांदा इह वी गुरमति ने दसिआ है। गुणां दी विचार राहीं जो गुर प्रसाद अरथ नाम (सोझी) मिलदी है मन उस नाल ही साधिआ जांदा। "इहु मनूआ किउ करि वसि आवै॥ गुरपरसादी ठाकीऐ गिआन मती घरि आवै॥१॥, "आवणु जावणु ठाकि रहाए गुरमुखि ततु वीचारो॥। सोझी दी, नाम (सोझी) दी अरदास (अरजोई) तां भगतां ने ते गुरुआं ने वी कीती है। "जो आवत सरणि ठाकुर प्रभु तुमरी तिसु राखहु किरपा धारि॥ जन नानक सरणि तुमारी हरि जीउ राखहु लाज मुरारि॥,

"आपे पारसु आपि धातु है आपि कीतोनु कंचनु॥ आपे ठाकुरु सेवकु आपे आपे ही पाप खंडनु॥ आपे सभि घट भोगवै सुआमी आपे ही सभु अंजनु॥ आपि बिबेकु आपि सभु बेता आपे गुरमुखि भंजनु॥ जनु नानकु सालाहि न रजै तुधु करते तू हरि सुखदाता वडनु॥१०॥,

"मेरे ठाकुर हम बारिक सरणि तुमारी॥ एको सचा सचु तू केवलु आपि मुरारी॥ रहाउ॥ जागत रहे तिनी प्रभु पाइआ सबदे हउमै मारी॥ गिरही महि सदा हरि जन उदासी गिआन तत बीचारी॥ सतिगुरु सेवि सदा सुखु पाइआ हरि राखिआ उर धारी॥२॥

रागु  धनासरी महला ३॥ जो हरि सेवहि तिन बलि जाउ॥ तिन हिरदै साचु सचा मुखि नाउ॥ साचो साचु समालिहु दुखु जाइ॥ साचै सबदि वसै मनि आइ॥१॥ गुरबाणी सुणि मैलु गवाए॥ सहजे हरि नामु मंनि वसाए॥१॥ रहाउ॥ कूड़ु कुसतु त्रिसना अगनि बुझाए॥ अंतरि सांति सहजि सुखु पाए॥ गुर कै भाणै चलै ता आपु जाइ॥ साचु महलु पाए हरि गुण गाइ॥२॥ न सबदु बूझै न जाणै बाणी॥ मनमुखि अंधे दुखि विहाणी॥ सतिगुरु भेटे ता सुखु पाए॥ हउमै विचहु ठाकि रहाए॥३॥किस नो कहीऐ दाता इकु सोइ॥ किरपा करे सबदि मिलावा होइ॥ मिलि प्रीतम साचे गुण गावा॥ नानक साचे साचा भावा॥४॥५॥"

अंम्रितु नामु तुम॑ारा ठाकुर एहु महा रसु जनहि पीओ॥ जनम जनम चूके भै भारे दुरतु बिनासिओ भरमु बीओ॥१॥ दरसनु पेखत मै जीओ॥ सुनि करि बचन तुम॑ारे सतिगुर मनु तनु मेरा ठारु थीओ॥१॥

कोई राज मंगदा कोई धन। भगत केवल ठाकुर नाम (ठाकुर दा गिआन/सोझी) मंगदा "ॴ सतिगुर प्रसादि॥ मागउ दानु ठाकुर नाम॥ अवरु कछू मेरै संगि न चालै मिलै क्रिपा गुण गाम॥१॥ रहाउ॥ राजु मालु अनेक भोग रस सगल तरवर की छाम॥ धाइ धाइ बहु बिधि कउ धावै सगल निरारथ काम॥१॥ बिनु गोविंद अवरु जे चाहउ दीसै सगल बात है खाम॥ कहु नानक संत रेन मागउ मेरो मनु पावै बिस्राम॥२॥१॥६॥ – खाम हुंदी खामी। राज माल अनेक भोग रस इह सारे पेड़ दी छां वांग हुंदे हन, अज है कल नहीं। इदां ही "सुपने जिउ धनु पछानु काहे परि करत मानु॥ बारू की भीति जैसे बसुधा को राजु है॥१॥ – बसुधा (संसार/ धरती/जमीन) दा राज बारू (रेते) दी भीति (ढेर/कंध) वांग हुंदी है। भगत राज नहीं मंगदे "राजु न चाहउ मुकति न चाहउ मनि प्रीति चरन कमलारे॥ ब्रहम महेस सिध मुनि इंद्रा मोहि ठाकुर ही दरसारे॥१॥

सो भाई गुरमति गिआन नूं पड़्हो समझो, भेद जाणो गुरमति विच पातिस़ाह ने सानूं की समझाइआ है। अंम्रित की है, नाम की है किवें मिलदा। ठाकुर कौण है। इह सब गुरमति ने समझाइआ है। सपस़ट कीता है। जदों तक साडी मनस़ा संसारी है साडा धिआन संसारी है उदों तक तत गिआन दी सोझी नहीं हो सकदी। गुरमति गिआन नूं पड़्हना विचारना किवें है "हरि का बिलोवना बिलोवहु मेरे भाई॥ सहजि बिलोवहु जैसे ततु न जाई॥१॥, "पड़िऐ नाही भेदु बुझिऐ पावणा॥ खटु दरसन कै भेखि किसै सचि समावणा॥। सो बाणी आप पड़्हो, गुरमति गिआन दे अरथ गुरबाणी तो लवो, गुणां दी विचार करो "गुण वीचारे गिआनी सोइ॥ गुण महि गिआनु परापति होइ॥


Source: ਠਾਕੁਰ ਅਤੇ ਪ੍ਰਭ