Source: ਸੰਗਤ, ਸਾਧ ਸੰਗਤ ਅਤੇ ਸਤਿ ਸੰਗਤ
संगत दो स़बदां दा मेल है संग (साथ) अते गति (मारग, मुकती)। बज़ुरग इक कहाणी सुणाउंदे सी। इक प्रचारक किते बैठ के कथा करदे सी। दूरों आवाज़ आई "मिठे संगतरे, चंगे संगतरे उहनां लोका तो पुछिआ भाई की करदा। सारिआं आखिआ जी संगतरे (oranges) वेचदा। उहनां हस के आखिआ इह आखदा मिठे दी संगत तरे, चंगे दी संगत तरे। इह दुनिआवी उदाहरण है के साडी संगत जे माड़े बंदे दी होई साडे विच माड़े गुण पैदा होणे, जे साडी संगत चंगी होई तां साडे अंदर वी चंगे गुण पैदा होणे। इही गल कबीर जी आखदे "कबीर मनु पंखी भइओ उडि उडि दह दिस जाइ॥ जो जैसी संगति मिलै सो तैसो फलु खाइ॥८६॥ – भाव मन जिहड़ा है इह पंछी वांग उडदा दसां दिस़ा विच। ते जो जिहो जही संगत करदा उसनूं वैसा ही फल मिलदा। ते गुरमुख ने गुणां दी, गिआन, नाम (सोझी) दी संगत कीती है। गुरबाणी ने संगत दी गल कीती है, फेर सति संगत अते साध संगत दी गल वी कीती है। आओ वेखदे हां गुरमति इहनां बारे की आखदी है।
संगत
गुरबाणी किसदी संगत करन नूं आखदी है? सति संगत की है? साध संगत की है? साध है कौण ते उसदी संगत किवें हुंदी है? की लोका दा इकठ सति दी जां साध संगत है? सतिसंग दी गुरमति परिभास़ा की है?
हरि जन के वड भाग वडेरे जिन हरि हरि सरधा हरि पिआस॥ हरि हरि नामु मिलै त्रिपतासहि मिलि संगति गुण परगासि॥२॥ – भाव हरि जन, जिहड़े हरि दे जन हन, उहनां दे भाग वडे हन जिहनां नूं हरि विच सरधा है ते हरि मिलण दी पिआस है। हरि नूं समझ के हरि नूं मिल के जिहनां नूं त्रिपती मिलदी है ते हरि दी संगत कीतिआं ही गुणां दा परगास/चानणा जिहनां नूं हुंदा है। हरि बारे जानण लई पड़्हो "हरि। भगत सूरदास जी आखदे हन "छाडि मन हरि बिमुखन को संगु॥ – फेर जिहनां नूं हरि बारे पता ही नहीं है उहनां दा संग करके सति संगत किवें हो सकदी है?
जो सतिगुर सरणि संगति नही आए ध्रिगु जीवे ध्रिगु जीवासि॥३॥ जिन हरि जन सतिगुर संगति पाई तिन धुरि मसतकि लिखिआ लिखासि॥ – सतिगुर कौण है? की फ़रक है गुर, गुरु ते गुरू विच? गुर दा अरथ हुंदा है गुण। गुरु गुणां दा धारणी ते गुरू मारग दरस़क गुणां दी सोझी देण वाला। सतिगुर दा अरथ है सति (सच) दे गुण। सो पंकती दा भाव बणदा जो सचे दे गुणां दी स़रण नहीं आए, गुणां दी संगत नहीं कीती तिरसकार है उस जीवन दा।
सवाल बणदा सच जां सति कौण ? गुरमति सच जां सति उसनूं मंनदी है जो आदि तों अंत तक सदीव रहिण वाला है। जो कदे ना बदले, ना मरदा है ना जनम लैंदा है। ना घटदा है ना वधदा है। संसार बारे कहिआ "संसा इहु संसारु है सुतिआ रैणि विहाइ॥ अते "जग रचना सभ झूठ है जानि लेहु रे मीत॥ कहि नानक थिरु ना रहै जिउ बालू की भीति॥ भाव जग रचना रेते दी कंध वांग है। अज है कल नहीं सी ते आउण वाले समे विच नहीं होणी। फेर लोकां दा इकठ सच जां सति किवें हो सकदा है? इह केवल संसारी लोकां ने गोलक दे लालच विच जां लोकां नूं मगर लाउण लई कहिणा ते प्रचारना स़ुरू कर दिता। जिहड़ा मनुख घरे जनानी बचिआं दा धिआन नहीं रखदा, मां बाप दी कदर नहीं करदा, लोकां नाल ठगीआं करदा, बेईमानी करदा, किसे प्रकार दी वी चोरी करदा, गिआन तों भजदा, काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईरखा, द्वेस़, झूठ, निंदा, चुगली, जात पात जिवें अवगुणां विच फसिआ उह लोकां दे इकठ विच आ के साध जां सति नहीं हो जांदा। हां जिहड़े प्रचारक ते प्रबंधक उहनां नूं साध संगत जां सति संगत आखी जांदे ने उहनां दे अहंकार नूं ही हवा दिंदे हन। सिख नूं गुर (गुणां) दी संगत करनी है।
सति संगत बारे होर उदाहरण
भाई रे हरि हीरा गुर माहि॥ सतसंगति सतगुरु पाईऐ अहिनिसि सबदि सलाहि॥ – भाव हे भाई हरि अमोल हीरा है जो गुणां विच वसदा है। सत संगत, सत गुरु (गुण) प्रापत हुंदा है हर वेले सबद (हुकम) दी सलाहणा, वडिआई करके अरथ मंन के। गुरबाणी ते गुणां दी विचार राहीं, हुकम नूं मंनिआं सत दी हर वेले संगत हुंदी है।
मनु माणकु निरमोलु है राम नामि पति पाइ॥ मिलि सतसंगति हरि पाईऐ गुरमुखि हरि लिव लाइ॥ आपु गइआ सुखु पाइआ मिलि सललै सलल समाइ॥२॥ – सति दी संगत कीतिआं हरि (सोझी दे अंम्रित विच हरिआ होइआ मन) दी प्रापती हुंदी है गुर (गुणां) नूं मुखि (मुख रखिआं, धिआन विच रखिआं, धिआ के) हरि दे विच लिव लगदी है। आप गवा के सुख मिलदा है ते हुकम दे प्रवाह, गिआन दे अंम्रित दे प्रवाह विच समाउण नाल। दसो लोकां दे इकठ विच आप गवाइआ जांदा? हउमै किवें खतम हुंदी? "गुरमुखि करम कमावै बिगसै हरि बैरागु अनंदु॥ अहिनिसि भगति करे दिनु राती हउमै मारि निचंदु॥ वडै भागि सतसंगति पाई हरि पाइआ सहजि अनंदु॥२॥ – हुकम दी, गुणां दी संगत ही सति संगत है। ते सिस संगत दे नाल सहज आनंद दी प्रापती हुंदी है, उही जो आनंद बाणी विच समझाई है। इह नहीं के थोड़ी देर लई आनंद बणिआ फेर दुखां ने घेर लिआ। इह आनंद सदा रहिण वाला है कदे नहीं घटदा इक वार प्रापत हो जावे भावें तती तवी ते ही किउं ना बैठा होवे ते सिर ते गरम रेत पैंदी होवे "कबीर जिसु मरने ते जगु डरै मेरे मनि आनंदु॥ मरने ही ते पाईऐ पूरनु परमानंदु॥२२॥, इह मन दा मरन है ते हरि दा, राम दा घट विच उजागर होणा है। फेर नहीं मरदा "ना ओहि मरहि न ठागे जाहि॥ जिन कै रामु वसै मन माहि॥।
सतसंगति महि नामु हरि उपजै जा सतिगुरु मिलै सुभाए॥मनु तनु अरपी आपु गवाई चला सतिगुर भाए॥ सद बलिहारी गुर अपुने विटहु जि हरि सेती चितु लाए॥
सतसंगति कैसी जाणीऐ॥ जिथै एको नामु वखाणीऐ॥ एको नामु हुकमु है नानक सतिगुरि दीआ बुझाइ जीउ॥५॥ – इसतों सपस़ट होर की होणा। सतसंगत कैसी जाणीए? जिथे एके दी गल होवे, एके दे नाम (सोझी) दी वखिआन होवे, विचार होवे। ते एको नाम है हुकम भाव जिथे हुकम दी सोझी प्रापत होवे। इही नानक नूं सतिगुरि (सचे दे गुणां) ने बुझा (समझाइआ) है।
इह सत दा संग विरले नूं प्रापत हुंदा है "वडभागी हरि संगति पावहि॥ भागहीन भ्रमि चोटा खावहि॥ बिनु भागा सतसंगु न लभै बिनु संगति मैलु भरीजै जीउ॥३॥ – जिसदे भाग वडे होण। जिसनूं सति आप जगाउंदा है। "हउ वारी जीउ वारी सचु संगति मेलि मिलावणिआ॥ हरि सतसंगति आपे मेलै गुरसबदी हरि गुण गावणिआ॥
सफलु जनमु जिना सतिगुरु पाइआ॥ दूजा भाउ गुर सबदि जलाइआ॥ एको रवि रहिआ घट अंतरि मिलि सतसंगति हरि गुण गावणिआ॥६॥ – भाव उहनां दा जनम सफल है जिहनां नूं सति दे गुण प्रापत होए हन। उह भगत अवसथा पा गए। सति दे इलावा (हुकम, काल/अकाल दे गुणां दे इलावा) कोई दूजा भाव रहिआ ही नहीं, सबद दुआरा दूजा भाव नस़ट हो गिआ। फेर घट (हिरदे) अंदर एको रवि रहिआ (प्रकास़मान हो गिआ) जिसनूं प्रापत कीतिआं अनदिन, हर वेले हरि दे गुणां नूं गाउंदा है भाव मंनदा है।
गोबिंद सतसंगति मेलाइ॥ ते गोबिंद की है, गो (परमेसर) बिंद (बीज) सो "सभु गोबिंदु है सभु गोबिंदु है गोबिंद बिनु नही कोई॥ सारे पासे जो प्रकासमान है सब परमेसर दा ही बिंद है इसदी सोझी ने ही सति दी संगत कराउणी। इह किसे तीरथ, किसे खास थां ते जा के जां लोकां दे इकठ विच जा के नहीं होणा "ऊहां तउ जाईऐ जउ ईहां न होइ॥। उसनूं समझण लई केवल इह समझ लवो के "सभै घट रामु बोलै रामा बोलै॥ राम बिना को बोलै रे॥१॥, हरि जीव दे अंदर राम बोलदा।
सति संगत मिलणी किदां "एका संगति इकतु ग्रिहि बसते मिलि बात न करते भाई॥ एक बसतु बिनु पंच दुहेले ओह बसतु अगोचर ठाई॥२॥ जिस का ग्रिहु तिनि दीआ ताला कुंजी गुर सउपाई॥ अनिक उपाव करे नही पावै बिनु सतिगुर सरणाई॥३॥ – भाव एके दी संगत ग्रिह (घर/घट/हिरदे/देही) विच ही है। पर इस घर विच पंच (उतम) दुहेले (दुख देण वाले) अरथ विकार वी नाल वसदे हन जिहनां ने आपणे पिछे बसतु अगोचर, भाव गुण, हरि, राम, लुका दिते हन। इस ग्रह नूं ताला जिहां लगा ते कुंजी (चाबी) गुर (गुणां) पास है ते इह कई उपाव (पखंड) आदिक करन नाल नहीं प्रापत होणी। इको मारग है के सचे दे गुणां दी सरण लैणी पैणी। इस स़बद विच अलंकार वरत के गुणां दी विचार ही दसी जा रही है।
साध संगत
साध कौण है? साध दी गुरमति परिभास़ा की है? साध दे लछण ते पहिचान की है? की जिसनूं सारे साध जां साधू आखणा स़ुरू कर दिंदे हन उही साध बण जांदा? साधना की है?
साध दा अरथ हुंदा है काबू करना। साध उह है जिसदा अवगुणां, विकारां ते काबू हो गिआ। जिसदे हिरदे विच काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, झूठ, निंदिआ, चुगली आदी ना होण। जिसदा मन भटकदा ना होवे। साडी अवसथा तां इह पंकती दरसाउंदी "जेता समुंदु सागरु नीरि भरिआ तेते अउगण हमारे॥ दइआ करहु किछु मिहर उपावहु डुबदे पथर तारे॥। पर की कोई आपणी मरज़ी नाल पंच (उतम) ठग दसे गए विकार काबू कर सकदा? गुरमति ने इसदी विधी की दसी है? आओ गुरबाणी राहीं इसदी विचार करीए।
गुरबाणी ने मन नूं असाध दसिआ है। मन होर कोई नहीं जीव दी आपणी होंद, हउमै, अगिआनता दा ही नाम मन है। "मनु असाधु साधै जनु कोइ॥ इह मन ही असाध है, जिसनूं विरला ही कोई साध (काबू) कर सकदा है। "ममा मन सिउ काजु है मन साधे सिधि होइ॥ मन ही मन सिउ कहै कबीरा मन सा मिलिआ न कोइ॥ – मन ही है जिथों इछा पैदा हुंदी, कामनावां, विकार पैदा हुंदे। पर मन गिआन दा भुखा है। मन नूं काबू करन दा तरीका दसिआ गुरमति ने "गिआन का बधा मनु रहै गुर बिनु गिआनु न होइ॥ – गिआन मन नूं बंन के रखदा पर गुर (गुणां दी विचार) तों बिनां गिआन नहीं हुंदा। "गुण वीचारे गिआनी सोइ॥ गुण महि गिआनु परापति होइ॥। इह चेते रहे के "मन मारे बिनु भगति न होई॥ जदों तक मन (अगिआनता, विकार, पंच चोर) मरदा नहीं भगती स़ुरू ही नहीं हुंदी। मन बारे होर जानण लई वेखो "मन, पंच अते मनमुख। जदों मन साधिआ जावे फेर आखदे "अवरि काज तेरै कितै न काम॥ मिलु साधसंगति भजु केवल नाम॥१॥
संसार विच बहुत सारे साध कहाउण वाले भगतां गुरुआं दे समें वी तुरे फिरदे सी। जटा धारी, मूंह सिर चंदन ला के बैठे, चंगीआं गलां करन वाले, लोकां नूं नैतिकता दा पाठ पड़्हाउण वाले ते होर अनेकां तरीकिआं नाल लोकां नूं प्रभावित करदे सी। पर सारे ही सूखम हउमे दे स़िकार रहे हन। लोकां दे दुख कट के सुख दा लालच दिंदे सी। पातिस़ाह बाणी विच उहनां नूं हिदाइत दे के आख रहे ने "साधो मन का मानु तिआगउ॥कामु क्रोधु संगति दुरजन की ता ते अहिनिसि भागउ॥१॥ रहाउ॥ सुखु दुखु दोनो सम करि जानै अउरु मानु अपमाना॥ हरख सोग ते रहै अतीता तिनि जगि ततु पछाना॥१॥ उसतति निंदा दोऊ तिआगै खोजै पदु निरबाना॥ जन नानक इहु खेलु कठनु है किनहूं गुरमुखि जाना॥ – दुख ते सुख दोवें परमेसर दी देन हन। पाप पुंन हुकम हथ हन, मरना जंमणा भाणा है। उसतति निंदा नूं तिआग के केवल हुकम दी सोझी लैण दी हिदाइत करदे हन। बाहरी भेख वाले साध कहाउण वालिआं लई पातिस़ाह आखदे "तपसी करि कै देही साधी मनूआ दह दिस धाना॥ ब्रहमचारि ब्रहमचजु कीना हिरदै भइआ गुमाना॥ संनिआसी होइ कै तीरथि भ्रमिओ उसु महि क्रोधु बिगाना॥२॥ घूंघर बाधि भए रामदासा रोटीअन के ओपावा॥ बरत नेम करम खट कीने बाहरि भेख दिखावा॥ गीत नाद मुखि राग अलापे मनि नही हरि हरि गावा॥३॥
जदों मन साधिआ जाणा तां जिहड़ी अवसथा बणनी उह विचार करन जोग है इह संसारी साध कहाउण वालिआं दा संग कीतिआं नहीं बलके मन साधे जाण तों बाद घट अंदरला द्रिस़ है। पातिस़ाह आखदे "साध कै संगि मुख ऊजल होत॥ साधसंगि मलु सगली खोत॥ साध कै संगि मिटै अभिमानु॥ साध कै संगि प्रगटै सुगिआनु॥ साध कै संगि बुझै प्रभु नेरा॥ साधसंगि सभु होत निबेरा॥ साध कै संगि पाए नाम रतनु॥ साध कै संगि एक ऊपरि जतनु॥ साध की महिमा बरनै कउनु प्रानी॥ नानक साध की सोभा प्रभ माहि समानी॥१॥ साध कै संगि अगोचरु मिलै॥ साध कै संगि सदा परफुलै॥ साध कै संगि आवहि बसि पंचा॥ साधसंगि अंम्रित रसु भुंचा॥ साधसंगि होइ सभ की रेन॥ साध कै संगि मनोहर बैन॥ साध कै संगि न कतहूं धावै॥ साधसंगि असथिति मनु पावै॥ साध कै संगि माइआ ते भिंन॥ साधसंगि नानक प्रभ सुप्रसंन॥२॥ साधसंगि दुसमन सभि मीत॥ साधू कै संगि महा पुनीत॥ साधसंगि किस सिउ नही बैरु॥ साध कै संगि न बीगा पैरु॥ साध कै संगि नाही को मंदा॥ साधसंगि जाने परमानंदा॥ साध कै संगि नाही हउ तापु॥ साध कै संगि तजै सभु आपु॥ आपे जानै साध बडाई॥ नानक साध प्रभू बनि आई॥३॥ साध कै संगि न कबहू धावै॥ साध कै संगि सदा सुखु पावै॥ साधसंगि बसतु अगोचर लहै॥ साधू कै संगि अजरु सहै॥ साध कै संगि बसै थानि ऊचै॥ साधू कै संगि महलि पहूचै॥ साध कै संगि द्रिड़ै सभि धरम॥ साध कै संगि केवल पारब्रहम॥ साध कै संगि पाए नाम निधान॥ नानक साधू कै कुरबान॥४॥ साध कै संगि सभ कुल उधारै॥ साधसंगि साजन मीत कुटंब निसतारै॥ साधू कै संगि सो धनु पावै॥ जिसु धन ते सभु को वरसावै॥ साधसंगि धरम राइ करे सेवा॥ साध कै संगि सोभा सुरदेवा॥ साधू कै संगि पाप पलाइन॥ साधसंगि अंम्रित गुन गाइन॥ साध कै संगि स्रब थान गंमि॥ नानक साध कै संगि सफल जनंम॥५॥ साध कै संगि नही कछु घाल॥ दरसनु भेटत होत निहाल॥ साध कै संगि कलूखत हरै॥ साध कै संगि नरक परहरै॥ साध कै संगि ईहा ऊहा सुहेला॥ साधसंगि बिछुरत हरि मेला॥ जो इछै सोई फलु पावै॥ साध कै संगि न बिरथा जावै॥ पारब्रहमु साध रिद बसै॥ नानक उधरै साध सुनि रसै॥६॥ साध कै संगि सुनउ हरि नाउ॥ साधसंगि हरि के गुन गाउ॥ साध कै संगि न मन ते बिसरै॥ साधसंगि सरपर निसतरै॥ साध कै संगि लगै प्रभु मीठा॥ साधू कै संगि घटि घटि डीठा॥ साधसंगि भए आगिआकारी॥ साधसंगि गति भई हमारी॥ साध कै संगि मिटे सभि रोग॥ नानक साध भेटे संजोग॥७॥ साध की महिमा बेद न जानहि॥ जेता सुनहि तेता बखिआनहि॥ साध की उपमा तिहु गुण ते दूरि॥ साध की उपमा रही भरपूरि॥ साध की सोभा का नाही अंत॥ साध की सोभा सदा बेअंत॥ साध की सोभा ऊच ते ऊची॥ साध की सोभा मूच ते मूची॥ साध की सोभा साध बनि आई॥ नानक साध प्रभ भेदु न भाई॥"
सो संसारी साध लबण दी थां मन निरमल (मल रहित) करके, गुरमति गिआन सबद विचार ते नाम (सोझी) दी प्रापती दा जतन करो। मन ने ही साध होणा ते इस साधे होए मन दी संगत ही साध संगत है। इस साध दी संगत करन नाल गाफ़ल मन जिहड़ा सुता पिआ है जाग जाणा "साधसंगि मन सोवत जागे॥ तब प्रभ नानक मीठे लागे॥
धनु धनु वडभाग मिलिओ गुरु साधू मिलि साधू लिव उनमनि लागिबा॥ त्रिसना अगनि बुझी सांति पाई हरि निरमल निरमल गुन गाइबा॥२॥ – हरि दे गुणां धारण करना ही साध होणा है।
सो दुनिआवी साध संत कहाउण वालिआं तो बचो। पातिस़ाह आखदे "मानुख की टेक ब्रिथी सभ जानु॥ देवन कउ एकै भगवानु॥ जिस कै दीऐ रहै अघाइ॥ बहुरि न त्रिसना लागै आइ॥ मारै राखै एको आपि॥ मानुख कै किछु नाही हाथि॥ – मनुख किसे नूं कुछ नहीं दे सकदा। मनुखां दे हथ कुझ नहीं है। "नकि नथ खसम हथ किरतु धके दे॥। मन ने साध होणा, मन ने ही संत होणा गुरमति गिआन तों नाम (सोझी) लै के निरमल होणा।मनुख दी टेक छड के नाम (सोझी) दी टेक करनी है "जन नानक नामु अधारु टेक है हरि नामे ही सुखु मंडा हे॥।
"रागु गउड़ी गुआरेरी महला ५॥ तिस की सरणि नाही भउ सोगु॥ उस ते बाहरि कछू न होगु॥ तजी सिआणप बल बुधि बिकार॥ दास अपने की राखनहार॥१॥ जपि मन मेरे राम राम रंगि॥ घरि बाहरि तेरै सद संगि॥१॥ रहाउ॥ तिस की टेक मनै महि राखु॥ गुर का सबदु अंम्रित रसु चाखु॥ अवरि जतन कहहु कउन काज॥ करि किरपा राखै आपि लाज॥२॥ किआ मानुख कहहु किआ जोरु॥ झूठा माइआ का सभु सोरु॥ करण करावनहार सुआमी॥ सगल घटा के अंतरजामी॥३॥ सरब सुखा सुखु साचा एहु॥ गुर उपदेसु मनै महि लेहु॥ जा कउ राम नाम लिव लागी॥ कहु नानक सो धंनु वडभागी॥४॥७॥७६॥" – राम दी टेक करनी है ते राम कौण है? जानण लई वेखो "गुरमति विच राम
सो गुरबाणी आप पड़्हो विचारो, समझो तां के कोई दुनिआवी साध संत कहाउण वाला तुहानूं ठग ना सके।
Source: ਸੰਗਤ, ਸਾਧ ਸੰਗਤ ਅਤੇ ਸਤਿ ਸੰਗਤ