Source: ਅਨੰਦ, ਦੁਖ, ਸੁੱਖ ਅਤੇ ਅਨਦ

अनंद, दुख, सुख अते अनद

अनंद की है? किवें मिले? सिखां विच अनंद बाणी पड़्ही जांदी है जिस विच ४० पौड़्हीआं हन, किसे प्रोगराम दी समापती समे ६ पौड़ीआं, पहली ५ ते अखीरली पौड़ी पड़्ह के समापती कीती जांदी है पर केवल अनंद बाणी पड़्ह हां सुण के आनंद दी अवसथा नूं प्रापत कीता जा सकदा है? जां पातिस़ाह इस बाणी विच समझा रहे ने के अनंद किवें प्रापत होणा? जे केवल इह पड़्ह के अनंद प्रापत हो जांदा है तां फेर सिखां विच दुबिधा, परेस़ानी, दुख होणा ही नहीं सी। बहुत सारे जीव बाणी नूं पड़्ह सुण तां रहे ने पर विचार नहीं कर रहे। बिनां विचार, बिनां समझे गिआन दी प्रापती नहीं हुंदी।

अनंद प्रापत किवें होणा? गुरबाणी दा फुरमान है "सहज सूख आनंद निधान॥ राखनहार रखि लेइ निदान॥ दूख दरद बिनसे भै भरम॥ आवण जाण रखे करि करम॥२॥, जीव दे मन ते चार भार हन "हउमै मोह भरम भै भार॥, विकारां कारण ही दुख दी अवसथा, चिंता दा रोग बणदा है। आनंद दी प्रापती दा मारग सहज दसिआ है बाणी विच "मेरै अंतरि प्रीति लगी देखन कउ गुरि हिरदे नालि दिखाइआ॥ सहज अनंदु भइआ मनि मोरै गुर आगै आपु वेचाइआ॥३॥ अते "अनंदु भइआ मेरी माए सतिगुरू मै पाइआ॥ सतिगुरु त पाइआ सहज सेती मनि वजीआ वाधाईआ॥ – अरथ अनंद दी प्रापती लई सतिगुरू प्रापत करना पएगा, सतिगुरु दी प्रापती सहज मिलण ते होणी। सहज की है? सतिगुरू कौण है? जो निराकार है उह किवें प्रापत हुंदा इह समझणा पएगा। गुरबाणी विच कबीर जी दा फुरमान दरज है "किआ पड़ीऐ किआ गुनीऐ॥ किआ बेद पुरानां सुनीऐ॥ पड़े सुने किआ होई॥ जउ सहज न मिलिओ सोई॥१॥ जिसदा अरथ है के केवल पड़्हन सुणन नाल गल नहीं बणनी जे सहज ना प्रापत होवे। इक इक करके विचारदे हां के दुख, सहज, सतिगुरू ते अनंद बारे गुरबाणी दा की फुरमान है।

दुख

दुख तां लगदा किउंके मन नूं टिका नहीं है। "दुखु तदे जा विसरि जावै॥ – जे इक पल लई वी उह विसर जावे तां दुख है। मन माइआ मगर भज रहिआ है। माइआ धन, पदारथ, राज, रिस़ते, संसार आदी नहीं हन, माइआ है मन दा इहनां पिछे भजणा, इहनां नाल मोह, इहनां वल खिच। हजारां मन सोना पइआ होवे जवाक जा किसे जीव जिसनूं उसदी कीमत ना पता होवे, स़ाइद उह उसनूं हथ वी ना लाउण। जिसनूं पता होवे, उसदे मन विच चोरी जां प्रापती दा विचार जां इछा पैदा हो जाणी। सो सारी खेड मन दी है जिसनूं विकार प्रबल होण। बुध दुहागण होई पई है, धिआन गिआन दी थां संसारी कंमां वल भजदी, अगिआनता वल भजदी इस लई विकारां मगर भजदी बुध नूं दुहागण कहिआ है किउंके घट विच बैठे हरि/राम अरथ पिर नूं छड के बुध मन (अगिआनता) मगर भजदी। नानक पातिसाह इह समझा रहे ने "सुणि मन भूले बावरे गुर की चरणी लागु॥ हरि जपि नामु धिआइ तू जमु डरपै दुख भागु॥ दूखु घणो दोहागणी किउ थिरु रहै सुहागु॥१॥ – दोहागण है बुध जिसनूं पिर (हरि/राम) नाल प्रेम नहीं, जिहड़ी मन मगर मनमति करदी भटक रही है। गिआन लैके बुध ने ही सुहागण होणा है ता के सुख दी प्रापती होवे।

सुख

"जिनि हरि सेविआ तिनि सुखु पाइआ॥, हरि दी सेवा है सबद विचार। "मन रे दूजा भाउ चुकाइ॥ अंतरि तेरै हरि वसै गुर सेवा सुखु पाइ॥। गुर (गुणां) दी सेवा ते हरि दी सोझी प्रापत हुंदी है "गुर सेवा ते हरि पाईऐ जा कउ नदरि करेइ॥ ते गुर की सेवा है सबद वीचार "गुर की सेवा सबदु वीचारु॥हउमै मारे करणी सारु॥। गुरबाणी दा फुरमान है के जे सुख लोचदा हैं तां राम दी स़रण लै "जउ सुख कउ चाहै सदा सरनि राम की लेह॥। राम दी स़रण लैण लई राम कौण है पता होणा चाहीदा। फेर स़रण की है किवें मिलणी इह वी पता होणा चाहीदा। इह राम दस़रथ पुतर नहीं बलकी उह राम है जो घट घट विच वसदा है। जो गिआन विच रमिआ होइआ है जो नाम (सोझी) दे अंम्रित नाल हरिआ होइआ है। राम बारे होर जानण लई वेखो "गुरमति विच राम। हरि बारे गुरबाणी विच समझाइआ है, हरि कौण है, किथे वसदा है प्रापत किवें हुंदा है। इस बारे विचार सांझे कीते गए ने वेखो "हरि

सुख लभदिआ कई सोचदे हन के धन, राज आदी नाल सुख मिल जाणा। जे आपणा राज होऊ तां दुख नहीं होणे। कई निरत वेखदे हन, नाटक वेखदे हन, अज कल तां इनसटाग्राम ते फेसबुक ते रीलां वेखदे हन। इह दो चार मिनट दी खुस़ी हो सकदी है पर सदा रहण वाला सुख नहीं है। गुरबाणी दा फुरमान है "सुखु नाही बहुतै धनि खाटे॥ सुखु नाही पेखे निरति नाटे॥ सुखु नाही बहु देस कमाए॥ सरब सुखा हरि हरि गुण गाए॥१॥ सूख सहज आनंद लहहु॥ साधसंगति पाईऐ वडभागी गुरमुखि हरि हरि नामु कहहु॥१॥ रहाउ॥ बंधन मात पिता सुत बनिता॥ बंधन करम धरम हउ करता॥ बंधन काटनहारु मनि वसै॥ तउ सुखु पावै निज घरि बसै॥२॥ – सरब सुखा तां हरि के गिण गाउण विच ही है। गुण गाउणा मूह तों गाउणा नहीं है सारी स्रिसटी परमेसर दे गुण गा रही है हुकम मंन के। कीरतन वाजे ढोलकी नाल गाउणा नहीं, गुण गाउणा दी गुरमति परिभास़ा की है समझणा पएगा। इस बारे विचार कीते हन, वेखो "कीरतनु अते गुण किवे गउणे हन चेते रहे "कोई गावै रागी नादी बेदी बहु भाति करि नही हरि हरि भीजै राम राजे॥

"ऊठत बैठत सोवत जागत इहु मनु तुझहि चितारै॥ सूख दूख इसु मन की बिरथा तुझ ही आगै सारै॥१॥ – दुख सुख तां मन दी अवसथा है। जे गिआन होवे तां दुख कदे नहीं लगदा।

"रसना गुण गोपाल निधि गाइण॥ सांति सहजु रहसु मनि उपजिओ सगले दूख पलाइण॥ – जदों अंतर मन विच गोपाल (पालण वाला परमेसर) दा धिआन रहे तां मन विच उठण वाले फुरने थम जांदे हन ते सहज अवसथा बण जांदी है, सब हुकम विच हो रहिआ जापदा है ते मन विच स़ात अवसथा कारण सारे दुख पलाइण कर जांदे हन खतम हो जांदे हन। जदों तक नाम (सोझी) नहीं है उदों तक दुख है, जदों तक हउमे है उदों तक नाम नहीं मिलदा किउंके "हउमै नावै नालि विरोधु है दुइ न वसहि इक ठाइ॥ हउमै विचि सेवा न होवई ता मनु बिरथा जाइ॥१॥

आनंद

गुरबाणी दा फुरमान है के आनंद दी अवसथा बहुत उची अवसथा है। केवल कहण मातर नाल के "अनंदु भइआ मेरी माए सतिगुरू मै पाइआ॥ ना ता सतगुरू मिलदा ना अनंद मिलदा। आनंद किवें मिलदा इह अगली पंकती विच पता लगदा "सतिगुरु त पाइआ सहज सेती मनि वजीआ वाधाईआ॥ – सतिगुरु तां सहज सेती मिलदा। सहज की है किवें मिलदा इसदी विचार कीती गई है वेखो "सुंन समाध अते सहज समाध अते "अखंड अते सहज। संखेप विच जदों गुरमति गिआन दे चानणे नाल मन नूं हुकम दी सोझी हो जावे, परमेसर (सचे) दे गुर (गुण) समझ आ जाण, धारण हो जाण, अवगुण/विकार ना रहण उस अवसथा नूं प्रापत कीतिआं सदा रहण वाला आनंद प्रापत होणा। पूरी इमानदारी नाल आपणे कंम कीतिआं फल हुकम ते छडिआं चिंता मुक जाणी। जीव दे घट तों भार लथ जाणे। गुरबाणी आखदी "कोऊ नरक कोऊ सुरग बंछावत॥ आल जाल माइआ जंजाल॥ हउमै मोह भरम भै भार॥ दूख सूख मान अपमान॥ अनिक प्रकार कीओ बखॵान॥ आपन खेलु आपि करि देखै॥ खेलु संकोचै तउ नानक एकै॥७॥ गिआन नाल इह समझ आ जांदा है के जो होणा परमेसर भाणे विच ही होणा। इस गल दा हर वेले चेता रहिणा धिआन रहिणा ही धिआउणा है। इह उह अवसथा है जिस विच सुपने विच वी, खिआलां विच वी विकार नहीं पैदा हुंदे। मन हर वेले हरि नाल रहिंदा "ए मन मेरिआ तू सदा रहु हरि नाले॥ हरि नालि रहु तू मंन मेरे दूख सभि विसारणा॥ फेर दुख विसर जांदे हन। "सदा सिफति सलाह तेरी नामु मनि वसावए॥ नामु जिन कै मनि वसिआ वाजे सबद घनेरे॥ – नाम (सोझी) मन विच वस जांदा है। नाम की है समझण लई वेखो "नाम, जप अते नाम द्रिड़्ह किवें हुंदा?

सो जे मनुख नूं सदा आनंद दी लोड़ है तां गुरमति गिआन नूं समझ के, सबद नूं समझ के, हुकम नूं समझ के मन दा टिका होणा ज़रूरी है। सुख, दुख, मान, अपमान, नफ़ा, नुकसान, मुकती, बंधन, राज, सब परमेसर भाणे विच है। हुकम मंनण नाल, सब कुझ परमेसर हथ है समझ के आपणे कंम जीव पूरी इमानदारी नाल विकारां ते काबू कर जे करे तां दुख कदे लागे ना लगण। दास नूं हमेस़ा मालिक ते पूरण भरोसा हुंदा है। जे आनंद बाणी नूं सहज नाल प्रेम नाल विचार के पड़्हीए तां इह गल बहुत चंगी तरह समझ आ जांदी है। गुरमति तों नाम (सोझी) प्रापत करन दा सही डंग है गुरबाणी दी विचार। बिनां विचार दे गिआन नहीं उपजदा ते जे गुरमति सुण के गिआन ना उपजे तां गिरबाणी दा फुरमान है "गुरमति सुनि कछु गिआनु न उपजिओ पसु जिउ उदरु भरउ॥। इस लई भाई गुरबाणी दी विचार करो गुरबाणी विच नाम (सोझी) समाइआ होईआ है "जनु नानकु बोले गुण बाणी गुरबाणी हरि नामि समाइआ ॥। आप पड़्हो, बाणी दे अरथ बाणी विचों ही खोजो। बाणी विच आए स़बदां दी दुनिआवी परिभास़ा लए गल समझ नहीं आ सकदी। गुरबाणी विच आए स़बदां दे गुरमति अरथ गुरबाणी विचों ही लभणे।

राम नामु रतन कोठड़ी गड़ मंदरि एक लुकानी॥ – राम (गुणां विच रमे होए दी) नाम (सोझी) दी रतन कोठड़ी है गड़ (घट/हिरदा), इह हरि दा मंदर वी दसिआ है गुरमति ने। घट दे अंदर ही लको के रखीआ गिआ है इह खजाना।

सतिगुरु मिलै त खोजीऐ मिलि जोती जोति समानी॥१॥ – सचे दे गुण मिलण तां खोजिआ जाणा इह खजाना। जदों एका हो गिआ घट अंदरली जोत दा परमेसर नाल।

अनद

की अनद गलती नाल लिखिआ गिआ? की अनद ते अनंद इको हन?

"अनद स़बद गुरबाणी विच ८८ वार वरतिआ गिआ है, "अनदु ६६ वार। लिखण वाले हन पंचम पातिस़ाह। ४ वार सुणन दे नाल लगिआ है। अनंद दी वरतो १७२ वार होई है ते लिखण वाले वी पंचम पातिस़ाह ही हन। किसे ने कहिआ के पातिस़ाह अनद लिखदे समे टिपी लाणा भुल गए सही नहीं है। गलती इक वार हुंदी, २,४,५ वार लेकिन १४३ वार नहीं। सो पहिलां तां इह समझणा पैणा के टिपी दी गलती १४३ वार नहीं हो सकदी। दूजी गल जे अनद ही अनंद है तां कंनां तों नहीं सुणिआं जांदा, आनंद महिसूस करन दी गल है। अनद दा भेद कुझ होर है। गुरबाणी विच आनंद, अनंद, अनद अते अनहद दी वखरी वखरी वरतो कीती है। अनाद वी वखरा ते सपस़ट तौर ते वरतिआ गिआ है।

अनद फारसी भास़ा दा स़बद है जिसदा अरथ हुंदा है "परमेसर दे गुण, Anad is a Zoroastrian name (Persian: zartosht) meaning elements of God. गुरबाणी विच जिथे वी अनद आइआ है उस थां इस अरथ दा भाव लै के वेखो तां होर सपस़ट हुंदा।

Additional content

ॴ सतिगुर प्रसादि॥ राम नामु रतन कोठड़ी गड़ मंदरि एक लुकानी॥ सतिगुरु मिलै त खोजीऐ मिलि जोती जोति समानी॥१॥ माधो साधू जन देहु मिलाइ॥ देखत दरसु पाप सभि नासहि पवित्र परम पदु पाइ॥१॥ रहाउ॥ पंच चोर मिलि लागे नगरीआ राम नाम धनु हिरिआ॥ गुरमति खोज परे तब पकरे धनु साबतु रासि उबरिआ॥२॥ पाखंड भरम उपाव करि थाके रिद अंतरि माइआ माइआ॥ साधू पुरखु पुरखपति पाइआ अगिआन अंधेरु गवाइआ॥३॥ जगंनाथ जगदीस गुसाई करि किरपा साधु मिलावै॥ नानक सांति होवै मन अंतरि नित हिरदै हरि गुण गावै॥४॥१॥३॥

विचार

"माधो साधू जन देहु मिलाइ॥ – प्रभ नूं इही अरदास है के इह जोत नाल जोत मिल जावे।

"देखत दरसु पाप सभि नासहि पवित्र परम पदु पाइ॥१॥ रहाउ॥ – इह उचा दरजा है जो निराकार दे दरस़न अरथ गुणां नूं समझे, प्रापत करन उपरंत मिलदा है। इस नाल पाप पुंन दी सोच खतम हो के हुकम दी सोझी हुंदी है। अवगुणां दी मैल लथ जांदी है ते सोच पवितर हुंदी है।

"पंच चोर मिलि लागे नगरीआ राम नाम धनु हिरिआ॥ – पर पंच (उतम) चोरअरथ विकारां मिल के लगे ने घट/नगरी विच ते राम दा नाम (सोझी) मनुख तों हिर लई है।

"गुरमति खोज परे तब पकरे धनु साबतु रासि उबरिआ॥२॥ – गुरमति दुआरा, गुणां दी मति ते खोज दुआरा पंच चोर काबू आउंदे हन तां लुकिआ धन (गुणां दा खजाना) फेर उभरदा।

"पाखंड भरम उपाव करि थाके रिद अंतरि माइआ माइआ॥ – पाखंड, भरम, सारे उपाव कर के थक गए पर इह खजाना नहीं प्रापत होइआ किउंके हिरदे अंदर माइआ दा, संसारी पदारथां दा लोभ भरिआ पिआ।

"साधू पुरखु पुरखपति पाइआ अगिआन अंधेरु गवाइआ॥३॥ – साधू (साधिआ होइआ मन) पुरख (प्रभ), बुध दा पिर (पति) पाइआ जदों अगिआन दा हनेरा घट विचों नाम (सोझी) नाल प्रकास़मान होइआ।

"जगंनाथ जगदीस गुसाई करि किरपा साधु मिलावै॥ – जगंनाथ (जगत दा नाथ (मालिक), जगदीस (जगत दा ईस़वर), गुसाई, जदों किरपा करे तां साध (साधिआ होइआ मन अरथ राम, हरि) घट अंदर प्रापत हुंदा। इसदे हुकम विच ही उह प्रापत हुंदा किउंके सब हुकम विच ही हन हुकम तों बाहर नहीं। ते जोर ना मंनगण ते है ना देण ते है।

"नानक सांति होवै मन अंतरि नित हिरदै हरि गुण गावै॥४॥१॥३॥ – नानक पातिस़ाह दस रहे हन के मन दे अंदर विकारां दे फुरने प्रभ आगिआ विच ही स़ांत होणे तां जीव ने हरि दे गुण गाउणे अरथ हुकम मंनणा।


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