Source: ਹਰਿ
अज सिखां विच दुबिधा है ते बहुते वीर भैणां गुरमति विच दसे राम अते हरि बारे नहीं जाणदे। कई सवाल खड़े हुंदे हन के अज दे सिखां नूं पड़्ह के वी पता नहीं लग रहिआ के गुरमति विच दसिआ हरि जां राम कौण है ते किथे वसदा है। कुझ समे पहिलां गुरमति विच दसे राम बारे पोसट लिखी सी जिसदा लिंक है "गुरमति विच राम, अज इस पोसट राहीं समझण दी कोस़िस़ करांगे के हरि कौण है। गुरमति अनुसार हरि जीव दे अंदर परमेसर दी जोत है जो खरदी नहीं, कदे नहीं मरदी। इह जोत अकाल रूप है जिवें "जल ते उपज तरंग जिउ जल ही बिखै समाहि ॥६०॥ जिवें जल विचों बूंद उठदी है फेर जल विच ही समा जांदी है उदां ही महाराज आखदे "हरि हरि जन दुइ एक है बिब बिचार कछु नाहि॥ जल ते उपज तरंग जिउ जल ही बिखै समाहि ॥६०॥" हरि ते हरि जन विच कोई फ़रक नहीं है। साडा मन (अगिआनता) जां विकारां दी मैल कारण इस जोत नूं नहीं जाणदा। गुरमति दा फुरमान है "मेरा तेरा जानता तब ही ते बंधा॥ गुरि काटी अगिआनता तब छुटके फंधा॥२॥ जदों तक मेरा तेरा दी विचार करदा है वयकतीगत (मैं/मेरा/तेरा/उसदा) दी सोच है, उदों तक माइआ विच फसिआ है बंधन विच है। गुरमति मन नूं मनाउण लई समझाउण लई गुर (गुण) दी विचार नूं आखदी है। किउंके जीव दी जोत अकाल रूप है इसनूं अकाल दे गुर (गुण) विचारण दा आदेस़ है। "गुण वीचारे गिआनी सोइ॥ गुण महि गिआनु परापति होइ॥" । इस गुणां दी विचार तों प्रापत होए गिआन नाल अगिआनता दा नास होणा। जदों इह गुरु (गुणां दा धारणी) हो जाणा गुणां दे दुआरा अगिआनता कटी गई तां इस ने आपणे निज घर (दरगाह) नूं मुड़ना। गुरबाणी दा फुरमान है "मन तूं जोति सरूपु है आपणा मूलु पछाणु॥ मन हरि जी तेरै नालि है गुरमती रंगु माणु॥। मन दा सुभाअ है के इह टिकदा नहीं पाप पुंन दी विचार, जीवन मरन दी विचार, लाभ हानी दी विचार, मान अपमान दी विचार विच हर वेले लगिआ रहिंदा है। इसनूं अगिआनता कारण टिका है ही नहीं।। इसनूं आपणे करता होण दा आभास है। इस माइआ दी खिच कारण इह जनम मरन दे गेड़ विच फसिआ होइआ है। रोज मरदा है जदों अगिआनता वस आपणी होंद दो भजदा है नकारदा है। गुरमति जीव नूं अगिआनता दी नींद विच सुता मंनदी है। जदों भरोसा टुटदा है उसनूं मरना मंनदी है। इस बारे असीं पहिलां विचार कर चुके हां के मरना की है ते अगिआनता दी नींद की है। "मरि मरि जाते जिन रामु न जानिआ ॥१॥। जप अते जाप बाणी विच अकाल दे गुण दसे हन तां के असीं इहनां गुणां नूं जाप (पछाण) सकीए ते पूरी बाणी इहनां गुणां दी ही विचार है। पर जिहड़े प्रसिधी दे लालच विच, माइआ दे लालच विच फसे ने जिहनां ने धरम नूं धंदा बणा लिआ है उह इस गल दा सही प्रचार नहीं करदे।
बिनां नाम (गिआन/सोझी) दे अंम्रित तों मन सूका (सुकिआ) पिआ है। सुके होए पेड़ वांग है। इसने हरिआ किवें होणा इह बाणी ने दसिआ है "जनम जनम का विछुड़िआ मिलिआ॥ साध क्रिपा ते सूका हरिआ॥ सुमति पाए नामु धिआए गुरमुखि होए मेला जीउ॥३॥ – साध क्रिपा ते नाम मिलना। साध बाहर नहीं हुंदे मन ही साध बणना किवें "मनु असाधु साधै जनु कोइ॥ मन साडा असाध है, जंगली घोड़े वरगा, माइआ दे मगर भजदा। मन ही अगिआनता दा रूप है अते "मन अंतरि बोलै सभु कोई॥ मन मारे बिनु भगति न होई॥२॥ कहु कबीर जो जानै भेउ॥ मनु मधुसूदनु त्रिभवण देउ॥३॥२८॥ गौर नाल वेखीए तां इहनां पंकतीआं विच "मन (न मुकता) अते "मनु( न औकड़ नाल) दोहां दी वरतो होई है। मन है अगिआनता, दुभिधा, माइआ दी भुख जिसने मरना है ते "मनु (मंन जाणा / एके दा गिआन हो जाणा) बण जाणा अते मन साधिआ जाणा "प्रभ जी को नामु मनहि साधारै॥ जीअ प्रान सूख इसु मन कउ बरतनि एह हमारै॥१॥ जदों प्रभ दा नाम (गिआन/सोझी) प्रापत हो जावे मन साधिआ जांदा। साध बण जांदा। इसनूं गिआन हो जांदा के जो हो रहिआ है उह हुकम विच हो रहिआ है। इस जुगत लई आपा वारना पैंदा, मैं तिआगणी पैंदी "आपु गवाइआ ता पिरु पाइआ गुर कै सबदि समाइआ॥, नहीं तां कई लगे ने नाम नूं खोजण कई वेद पड़्ह रहे ने, कई राम राम उचारण लगे ने, कई अलाह अलाह उचारदे पए ने ते अज साडे वीर वाहिगुरू वाहिगुरू करन लग पए। पर प्रापती दी जुगत गुरमति दसदी है "सुरि नर मुनि जन अंम्रितु खोजदे सु अंम्रितु गुर ते पाइआ॥। गुरबाणी ने कहिआ है के अंम्रित बाहर नहीं हुंदा अंम्रित तां घट अंदर ही है ते गुर (गुणां) दे प्रसाद (प्रापती) तों मिलणा "जिन वडिआई तेरे नाम की ते रते मन माहि॥ नानक अंम्रितु एकु है दूजा अंम्रितु नाहि॥ नानक अंम्रितु मनै माहि पाईऐ गुर परसादि॥ तिन॑ी पीता रंग सिउ जिन॑ कउ लिखिआ आदि॥१॥। प्रापत किसनूं होणा जिसनूं धुरों आदेस़ हो गिआ। बाकीआं ने पड़्ह के वी नहीं विचारना। इसी नाम (सोझी) दे अंम्रित बारे पातिस़ाह ने आखिआ है "क्रिपा जलु देहि नानक सारिंग कउ होइ जा ते तेरै नाइ वासा॥। क्रिपा जल है गुर प्रसाद, अंम्रित कदे ना मरन वाला, कदे ना खतम होण वाला नाम (सोझी)। इही नाम दा अंम्रित "गुर गिआनु पदारथु नामु है हरि नामो देइ द्रिड़ाइ॥ हरि दा गिआन द्रिड़ करवाउंदा है।
गुरबाणी विच स़बद आउंदा है "नीच जाति हरि जपतिआ उतम पदवी पाइ॥ पूछहु बिदर दासी सुतै किसनु उतरिआ घरि जिसु जाइ॥ – इहनां पंकतीआं नूं पड़्ह के भुलेखा लग सकदा है के गुरमति जात पात नूं प्रवानगी दिंदी है। इह गल सरासर गलत है। गुरमति विच नीच जात उही है जो गिआन ना लवे। नाम (सोझी) दी विचार ना करे। माइआ मगर भजे। होर समझण लई वेखो "जात गोत कुल । इथे दसिआ इह जा रहिआ है के मनमुख वी गिआन लैके, नाम दा अंम्रित लैके हरिआ हो जांदा है ते उतम पदवी पा लैंदा है।
हरि कौण?
हरि घट दी उह अवसथा है जो नाम/गिआन दा अंम्रित प्रापत करके हरिआ हो गिआ। उदाहरण
काहे रे मन चितवहि उदमु जा आहरि हरि जीउ परिआ॥ सैल पथर महि जंत उपाए ता का रिजकु आगै करि धरिआ॥१॥ मेरे माधउ जी सतसंगति मिले सु तरिआ॥ गुर परसादि परम पदु पाइआ सूके कासट हरिआ॥१॥ – सति दी संगत कीतिआं सति दी संगत मिलण नाल तर जाणा। सति संगत लोकां दा इकठ नहीं है। कोई झूठ बोलदा, कोई चोरी ठगी करदा। कोई जनानी निआणे कुटदा, विकारां नाल भरिआ होइआ मनुख इकठ विच आ के सच नहीं हो जांदा सति नहीं हो जांदा। सच गुरमति अनुसार उह है जो कदे ना खरे। सदीव रहे। बाकी जग रचना, मनुखी देह सब बिनस जाणी इस कारण माइआ दा सरीर, हरेक वसतू नूं गुरमति ने झूठ कहिआ है "जग रचना सभ झूठ है जानि लेहु रे मीत॥ कहि नानक थिरु ना रहै जिउ बालू की भीति॥४९॥
नामु जपत मनु तनु सभु हरिआ॥ कल मल दोख सगल परहरिआ॥१॥ – नामु (एके दी सोझी) नूं जपत (पछानण उपरंत) मनु (साधिआ होइआ मन), तन (घट/देही) सभ हरिआ (हरिआवली) हो गई। कल (कलजुग – अगिआनता), मल (विकारां दी मैल), सारे ही दूर हो गए। इही मन दा सूतक है जिस बारे कहिआ है "मन का सूतकु लोभु है जिहवा सूतकु कूड़ु॥ अते इह सूतक वाहिगुरू वाहिगुरू करन नाल नहीं उतरना, इह उतरना "नानक सूतकु एव न उतरै गिआनु उतारे धोइ ॥१॥ इह गिआन नाल उतरना।
तिसु सेवक कै हउ बलिहारी जो अपने प्रभ भावै॥ तिस की सोइ सुणी मनु हरिआ तिसु नानक परसणि आवै॥ – जिसदा मनु हरिआ होइआ गिआन नाल, जिस उते इह दइआ होई उसते ही उह प्रसंन (खुस़) हुंदा है।
पिछली पोसट विच विचारिआ सी के किवें गुरमति विच "पाणी गिआन नूं आखिआ है। जिसनूं जप बाणी दे अंत विच पिता वी कहिआ है। पातिस़ाह आखदे इही पाणी (गिआन) ने मन नूं हरिआ करना है "पहिला पाणी जीउ है जितु हरिआ सभु कोइ॥ सूतकु किउ करि रखीऐ सूतकु पवै रसोइ॥ नानक सूतकु एव न उतरै गिआनु उतारे धोइ॥। गुरमति अलंकार दी भास़ा है कविता रूप विच रागां विच लिखी है। इस लई समझाउण खातर उदाहरण दिते ने बाणी विच।
जिउ चात्रिकु जल बिनु बिललावै बिनु जल पिआस न जाई॥ गुरमुखि जलु पावै सुख सहजे हरिआ भाइ सुभाई॥२॥ – इह गिआन रूपी अंम्रित, पाणी दी इथे फेर गल कर रहे ने। आखदे जिवें चात्रिक (पपीहा) जल तों बिनां बिललाउंदा है तड़फदा है उदां ही गरमुख (गुणां नूं मुख रखण वाला) गिआन मंगदा है "ब्रहम गिआनी का भोजनु गिआन॥। गुणां दी विचार करन वाले नूं, गुणां नूं धिआन रखण वाले नूं ही इह क्रिपा जल, इह अंम्रित रूपी गिआन मिलदा है। फेर नाम (सोझी) दा अंम्रित मिलन उपरंत उसनूं सहज सुभाअ दी प्रापती हुंदी है मनु हरिआ हुंदा है। "अनहद बाणी गुरमुखि वखाणी जसु सुणि सुणि मनु तनु हरिआ॥
गुणां दी विचार राहीं, गिआन दे अंम्रित नाल ही सब मन तन हरिआ होणा, इसनूं होर सपस़ट कीता है "हरि उतमु हरि प्रभु गाविआ करि नादु बिलावलु रागु॥ उपदेसु गुरू सुणि मंनिआ धुरि मसतकि पूरा भागु॥ सभ दिनसु रैणि गुण उचरै हरि हरि हरि उरि लिव लागु॥ सभु तनु मनु हरिआ होइआ मनु खिड़िआ हरिआ बागु॥ अगिआनु अंधेरा मिटि गइआ गुर चानणु गिआनु चरागु॥ जनु नानकु जीवै देखि हरि इक निमख घड़ी मुखि लागु॥१॥" – हुण इह पड़ के फेर विचार लवो के इको स़बद दे रटण नाल गिआन किवें मिल जाणा। सोचो किते तुहानूं मगर लाउण लई किसे ने गिआन तों हटाउण लई तां नहीं रटण लाइआ। फेर इक वार हौली हौली पड़्ह के विचार लवो "ए स्रवणहु मेरिहो साचै सुनणै नो पठाए॥ साचै सुनणै नो पठाए सरीरि लाए सुणहु सति बाणी॥ जितु सुणी मनु तनु हरिआ होआ रसना रसि समाणी॥ सचु अलख विडाणी ता की गति कही न जाए॥ कहै नानकु अंम्रित नामु सुणहु पवित्र होवहु साचै सुनणै नो पठाए॥३७॥
संत सरणि साजन परहु सुआमी सिमरि अनंत॥ सूके ते हरिआ थीआ नानक जपि भगवंत॥२॥ – संत बाहर नहीं हुंदे, मनु ने गिआन लैके संत होणा है। भगवंत नूं जापण ते, जापण उपरंत सूका हरिआ होणा। उपर आपां विचार कीता की किवें गिआन नाल हरिआ होणा।
हरि मंदरु एहु सरीरु है गिआनि रतनि परगटु होइ॥ मनमुख मूलु न जाणनी माणसि हरि मंदरु न होइ॥२॥ हरि मंदरु हरि जीउ साजिआ रखिआ हुकमि सवारि॥ धुरि लेखु लिखिआ सु कमावणा कोइ न मेटणहारु॥३॥ – गुरबाणी, गुरू दी मति दा आदेस़ है के साडा सरीर (घट), साडी देही ("देही गुपत बिदेही दीसै॥ – घट देही है बाहर तूमड़ी हाड मास दा सरॳिर बदेही है) हरि दा मंदर है जिसने गिआन दे रतन दुआरा प्रगट होणा। जो मनमुख है मन दी मरजी करण वाला है, गिआन तों, विचार तों, गुणां तों भजदा है उस मनमुख नूं इह कदे वी समझ नहीं लगणा। हरि गिआन दुआरा प्रगट होणा मनु दे अंदर ही किरपा दे जल नाल। जदों हुकम मंनण लग पिआ। सोझी लै लई तां।
असीं बसंत रुत वी बाहर मंनी बैठे हां। गुरमति आखदी जदों मन विच गिआन दी प्रापती दी इछा हुंदी गिआन दा चानणा होण दा चा हुंदा उदों बसंत रुत है। इस बसंत रुत विच की हुंदा वेखदे हां "रागु बसंतु महला ३॥ बसंतु चड़िआ फूली बनराइ॥ एहि जीअ जंत फूलहि हरि चितु लाइ॥१॥ इन बिधि इहु मनु हरिआ होइ॥ हरि हरि नामु जपै दिनु राती गुरमुखि हउमै कढै धोइ॥१॥ रहाउ॥ सतिगुर बाणी सबदु सुणाए॥ इहु जगु हरिआ सतिगुर भाए॥२॥ फल फूल लागे जां आपे लाए॥ मूलि लगै तां सतिगुरु पाए॥३॥ आपि बसंतु जगतु सभु वाड़ी॥ नानक पूरै भागि भगति निराली॥४॥५॥१७॥" – हुण जिहड़ी बिधी नाल मन दे हरिआ होण दी गल कीती है, जिस बसंत दी गल कीती है पड़्ह के विचारो के उह मनु दे बाग विच सोझी दे अंम्रित नाल नाम/सोझी/गिआन दे फुल लगण कारण होई है जां बाहरी मौसम कारण दुनिआवी बसंत रुत दी गल है। जे हुणे वी सहसा है स़ंका है फेर इह पड़ो "मनु तनु मउलिओ अति अनूप॥ सूकै नाही छाव धूप॥ सगली रूती हरिआ होइ॥ सद बसंत गुर मिले देव॥३॥ बिरखु जमिओ है पारजात॥ फूल लगे फल रतन भांति॥ त्रिपति अघाने हरि गुणह गाइ॥ जन नानक हरि हरि हरि धिआइ॥ – गुरबाणी तां गुर (गुण) मिलण ते बसंत होई है कह रही है ते साडे प्रचारक दुनिआवी रुतां प्रचारी जा रहे ने। "सबदे सदा बसंतु है जितु तनु मनु हरिआ होइ॥ नानक नामु न वीसरै जिनि सिरिआ सभु कोइ॥६०॥ नानक तिना बसंतु है जिना गुरमुखि वसिआ मनि सोइ॥ हरि वुठै मनु तनु परफड़ै सभु जगु हरिआ होइ॥६१॥
गुरबाणी तां आखदी "हरि का नामु धिआइ कै होहु हरिआ भाई॥करमि लिखंतै पाईऐ इह रुति सुहाई॥ वणु त्रिणु त्रिभवणु मउलिआ अंम्रित फलु पाई॥ मिलि साधू सुखु ऊपजै लथी सभ छाई॥ नानकु सिमरै एकु नामु फिरि बहुड़ि न धाई॥ – हरि दे नाम (सोझी) दा धिआन रखण नाल ही मन हरिआ होणा। कई आखदे धिआन लौणा अखां बंद कर के जिस निराकार नूं कदे नहीं देखिआ, जो माइआ तो परे है उस बारे सोचणा उसनूं देखण दी कोस़िस़ करनी है। धिआए दा अरथ हुंदा है धिआन रखणा। गिआन गुरू दा धिआन लौणा उसदे गिआन नूं हमेस़ा चेते रखणा है। जिवें मां बचे नूं बाहर भेजण लगे आखदी है पुतर धिआन नाल जाईं, उदों मां बचे नूं अखां बंद करके जाण नूं नहीं आखदी। मां दा कहण दा भाव हुंदा है पुतर सुचेत रहीं। गुरमति दा आदेस़ वी धिआन रखण दा अरथ सुचेत रहिणा ही है। नानक पातिस़ाह एकु नाम (एके दी मति) नूं चेते रखण लई आख रहे ने। एके दी मति है के चेता रहे सारिआं जीवां विच एक जोत है। जल तों उपजण वाली कोई बूंद वखरी नहीं है "अंडज जेरज सेतज उतभुज घटि घटि जोति समाणी ॥।
हरि ऊतमु हरिआ नामु है हरि पुरखु निरंजनु मउला॥
तरसु पइआ मिहरामति होई सतिगुरु सजणु मिलिआ॥ नानक नामु मिलै तां जीवां तनु मनु थीवै हरिआ॥१॥ – तरस पिआ, जदों भाणा होइआ, हुकम होइआ, मिहरामति होई, परमेसर दी, सतिगुरु (सचे दा गुण) मिलिआ, नामु (सोझी/गिआन) दी प्रापती होई तां जीवां, तन (घट) मनु (काबू मन/ इछावां) हरिआ होणा।
सो मन ही हर है, आपणे मूल नूं भुल के अगिआनता, विकारां दा रूप लैके विछड़ चोटा खा रहिआ है। इस मन दे मरन, काबू होण उपरंत मनु होणा, राम (रमिआ होइआ), हरि (नाम/सोझी दे अंम्रित) नाल हरिआ होणा।
हरि दी प्रापती
"हरि रसु पाइ पलै पीऐ हरि रसु बहुड़ि न त्रिसना लागै आइ॥ एहु हरि रसु करमी पाईऐ सतिगुरु मिलै जिसु आइ॥ कहै नानकु होरि अन रस सभि वीसरे जा हरि वसै मनि आइ॥३२॥ – हरि दे करम (मिहर) नाल ही हरि दी प्रापती हुंदी है। जिसते दिआल होवे उस नूं ही हरि रस (नाम) दी पिआस ते गिआन दी भुख लगदी है। "हरि रसु पाए पलै करम नाल ही उसदे पले हरि रस पैंदा है। जिहड़ा इह हरि रस पी लैंदा है फेर उसनूं त्रिसना (किसे वसतू दी वी भुख) नहीं रहिंदी।
"घरै अंदरि सभु वथु है बाहरि किछु नाही॥ गुरपरसादी पाईऐ अंतरि कपट खुलाही॥१॥ सतिगुर ते हरि पाईऐ भाई॥ अंतरि नामु निधानु है पूरै सतिगुरि दीआ दिखाई॥ – घर अरथ घट विच ही सब कुझ है। सतिगुर (सचे दे गुण) विचारन तों ही हरि दी प्रापती हुंदी है। हरि दी प्रापती लई कपट खोणा पैंदा है, विकार मन विच उठण दी थां गुरप्रसाद (गुणां दा पढसाद) अरथ नाम (हुकम दी सबदु दी सोझी) नाल गुण उपजणे ज़रूरी हन।
हरि राइ
राइ – जिसदा राज चलदा। सो हरि राइ दा अरथ बणदा हरि + राजा।
"हरि जीउ तेरी दाती राजा॥
"राजा सगली स्रिसटि का हरि नामि मनु भिंना॥
"निहचलु राजु सदा हरि केरा तिसु बिनु अवरु न कोई राम ॥
"कोऊ हरि समानि नही राजा॥ ए भूपति सभ दिवस चारि के झूठे करत दिवाजा॥
इस लई भाई गुरबाणी दी विचार करो, गुणां दी विचार करो। गुण धारण होण। गुण साडे ते दिआल होण। गिआन गुरू दी गल सानूं समझ आवे। साडे घट विच गिआन दा चानणा होवे। भरोसा हवे। बाणी ते भरोसा रख बाणी विचों ही बाणी दे अरथ खोजो।
बाणी मंत्रु महा पुरखन की मनहि उतारन मांन कउ॥ खोजि लहिओ नानक सुख थानां हरि नामा बिस्राम कउ ॥२॥१॥२०॥"
बार बार इक स़बद दा उचारण बहुत पहिलां तो ही लोक करदे रहे ने, कोई अलाह अलाह कोई राम राम, कोई हरि हरि बार बार रटण नूं जपणा आखदा। गुरबाणी विच दरज है।
राम राम सभु को कहै कहिऐ रामु न होइ॥ गुरपरसादी रामु मनि वसै ता फलु पावै कोइ॥१॥ अंतरि गोविंद जिसु लागै प्रीति॥ हरि तिसु कदे न वीसरै हरि हरि करहि सदा मनि चीति॥१॥ रहाउ॥ हिरदै जिन॑ कै कपटु वसै बाहरहु संत कहाहि॥ त्रिसना मूलि न चुकई अंति गए पछुताहि॥२॥ अनेक तीरथ जे जतन करै ता अंतर की हउमै कदे न जाइ॥ जिसु नर की दुबिधा न जाइ धरम राइ तिसु देइ सजाइ॥३॥ करमु होवै सोई जनु पाए गुरमुखि बूझै कोई॥ नानक विचहु हउमै मारे तां हरि भेटै सोई॥४॥४॥६॥ (रागु गूजरी महला ३, ४९१)
जगि हउमै मैलु दुखु पाइआ मलु लागी दूजै भाइ॥ मलु हउमै धोती किवै न उतरै जे सउ तीरथ नाइ॥ बहु बिधि करम कमावदे दूणी मलु लागी आइ॥ पड़िऐ मैलु न उतरै पूछहु गिआनीआ जाइ॥१॥ मन मेरे गुर सरणि आवै ता निरमलु होइ॥ मनमुख हरि हरि करि थके मैलु न सकी धोइ॥१॥ रहाउ॥ मनि मैलै भगति न होवई नामु न पाइआ जाइ॥ मनमुख मैले मैले मुए जासनि पति गवाइ॥ गुरपरसादी मनि वसै मलु हउमै जाइ समाइ॥ जिउ अंधेरै दीपकु बालीऐ तिउ गुर गिआनि अगिआनु तजाइ॥२॥ हम कीआ हम करहगे हम मूरख गावार॥ करणै वाला विसरिआ दूजै भाइ पिआरु॥ माइआ जेवडु दुखु नही सभि भवि थके संसारु॥ गुरमती सुखु पाईऐ सचु नामु उर धारि॥३॥ जिस नो मेले सो मिलै हउ तिसु बलिहारै जाउ॥ ए मन भगती रतिआ सचु बाणी निज थाउ॥ मनि रते जिहवा रती हरि गुण सचे गाउ॥ नानक नामु न वीसरै सचे माहि समाउ॥४॥३१॥६४॥(रागु सिरीरागु, म ३, ३७)
Source: ਹਰਿ