Source: ਲੰਗਰੁ, ਭੁੱਖ ਅਤੇ ਮਨ ਦਾ ਭੋਜਨ
मन दा भोजन
"लंगरु चलै गुर सबदि हरि तोटि न आवी खटीऐ॥ – गुरू का लंगर 휽�गुरबाणी गुरमति अनुसार गुर सबद मनु दा भोजन है, जिवे गुरदुआरे विच प्रस़ादा पाणी सरीर दा भोजन है। इस तरा गुरबाणी दा गिआन (सति गुरि प्रस़ादि) रूपी लंगर मन दा भोजन है जिस नाल बेसंतोखी मन नूं सति संतोखु दी प्रापती हुंदी है।
स़रीर दे भोजन, समाजिक जिंमेवारी नूं के कोई भुखा ना रहे, लंगर मंन लैणा ही सब तों वडी मूरखता है। साखीआं राहीं पंडत ने गिआन दे भोजन नूं छोटा करन लई घड़िआ परपंच है भोजन दा लंगर। ब्राहमण इसनूं भंडारा आखदा। मौलवी इसनूं “सदका” जां “ज़कात” कहिंदा।
भुखे नूं भोजन छकाउणा चंगी गल दी पर इस नाल अहंकार विच वाधा ही हो रहिआ। घरों रजिआं नूं ही भोजन छका के, वंन सुवंने पकवान छका के ही धरमी बणदा अज दा गुरसिख कहाउण वाला। नानक पातिस़ाह दी २० रुपईआ दे लंगर लौण दी साखी घड़न दे दो प्रमुख कारण समझ आउंदे हन
१. भोजन दा लंगर हुंदा है सिध करना। गुर स़बद दे लंगर तों धिआन हटौणा।
२. ὠसाध बाहर, दुनिआवी हुंदे हन सिध करना ते। मन साधण दी गुरमति विचार तों दूर करना। जे इह वी आख दिंदे के गरीबां नूं भुखिआं नूं भोजन छकाइआ तां वी ठीक सी। पर साधां नूं भोजन छकाइआ खास सोची समझी चाल दा हिसा है।
होर वी कारण समझ आउंदे हन पर इह प्रमुख कारन हन। असीं विचार गुरमति दी जारी रखणी।
"त्रिपति भई सचु भोजनु खाइआ॥ मनि तनि रसना नामु धिआइआ॥१॥ जीवना हरि जीवना॥ जीवनु हरि जपि साधसंगि॥१॥ रहाउ॥ अनिक प्रकारी बसत्र ओढाए॥ अनदिनु कीरतनु हरि गुन गाए॥२॥ हसती रथ असु असवारी॥ हरि का मारगु रिदै निहारी॥३॥ मन तन अंतरि चरन धिआइआ॥ हरि सुख निधान नानक दासि पाइआ॥४॥२॥ (रागु धनासरी, म ५, ६८४)
गुर सबद लंगर उह लंगर है जिस दी कदी वी तोट नहीं आउंदी किउंकि गुरबाणी विचला (गुर गिआन पदारथु/सति गुरि प्रसादि ) नित नवा है भाव जिना मरजी विचारो खतम नही होवेगा
खावहि खरचहि रलि मिल भाई तोटि न आवहि वधदो जाई॥
पर असीं दाल रोटी वरताउण नूं लंगर मंन लिआ। गुरमति दा फुरमान हैः
छादनु भोजनु मागतु भागै॥ खुधिआ दुसट जलै दुखु आगै॥ गुरमति नही लीनी दुरमति पति खोई॥ गुरमति भगति पावै जनु कोई॥१॥
छादनु = निरजीउ सरीर लई कपड़ा। भोजनु = निरजीउ सरीर दा ३६ प्रकार दा भोजन जीसदी बिसटा भी बणदी है। "मागत भागै = मंगदा फिरदा है। खुधिआ = भुखा। दुसट जलै दुखु आगै। निरजीउ या पसु पधर ते जीवन जीण वाला जीउ दुसट हुंदा। इह परलोक दे न्याय अनूसार जनम मरण दा दुख सहारदा है। इस वासते जीउ नूं सरजीउ वाला गुरमति गिआनु दा भोजनु ( लंगर) ग्रहिण करन लई गुरबाणी उपदेस दे रही है। लंगर (Anchor) गुरमति गिआन तां कोई विरला ही लैदा है।
गुरमति अनुसार: रसोई विच छादन भोजन ही तैयार हुंदा। इस नूं लंगर कहिणा दुरमति है। भुखे नूं भोजन छकाउणा इनसान दा मूल ज़िंमेवारी है पर असीं इसनूं लंगर कह के आपणे अहंकार विच ही वाधा करदे हां। मैं जी ५०० लोकां नूं लंगर खवाइआ। देसी घिओ दा लंगर लौंदे हां जी असीं तां। रजिआं नूं वी बुला बुला के भोजन छका रहे हां पर हजारां लोग फेर वी रात नूं भुखे सो रहे ने। भुखे नूं भोजन छकाउणा आपणी मूल जिंमेवारी नूं सेवा दा नाम दे दिता। गुरबाणी तों कदे सोझी लई ही नहीं के असली सेवा की है ते लंगर की है। गुरबाणी तां आखदी गुर की सेवा है "गुर की सेवा सबदु वीचारु॥ हउमै मारे करणी सारु॥ इह सेवा तां हउमे नूं मारदी है वाधा नहीं करदी।
गुरमति दा लंगर
"नानक सचे नाम बिनु किसै न लथी भुख ॥३॥
सचे नाम ( गुरमति गिआनु) दी वीचार बिना किसे जीउ दे मन दी भुख या सोच नहीं लथदी (रुकदी)। इस नूं विचारिआं नहीं के "भुखिआ भुख न उतरी जे बंना पुरीआ भार॥
लंगरि दउलति वंडीऐ रसु अंम्रितु खीरि घिआली॥ जे नाम (गुरमति गिआन दी सोझी) दा लंगर जो असली दौलत है इसनूं नाम अंम्रित रस दी खीर बणा के वंडीए तां असली सेवा है जो गुरूआं ने भगतां ने वंडी है॥
गुरबाणी अनुसार गुरमति ब्रहम दा गिआन है "लोगु जानै इहु गीतु है इहु तउ ब्रहम बीचार॥। अते जिहड़े ब्रहम गिआन दे भुखे ने सोझी दे भुखे ने उहनां दा भोजन ही गिआन हुंदा "ब्रहम गिआनी का भोजनु गिआन॥ नानक ब्रहम गिआनी का ब्रहम धिआनु॥३॥
जिहनां इह गिआन दा भोजन छकिआ उह तां आखदे "भोजन गिआनु महा रसु मीठा॥ जिनि चाखिआ तिनि दरसनु डीठा॥
जिहनां गुरबाणी दा वापार कीता लोकां नूं मगर लाउण लई उहनां सरीर दे भोजन नूं लंगर कहि के प्रचारिआ ता के लोग गुरमति दी सोझी वल ना जाण, दाल रोटी दे वंडन नूं सेवा मंन के खुस़ होई जाण, गोलक विच इस सेवा दे नाम ते पैसा कठा कीता जा सके। उहनां आप तां आपणा जनम अकारथ कीता ही है "माइआ कारन बिदिआ बेचहु जनमु अबिरथा जाई ॥३॥ पर नाल नाल लोकां नूं वी कुराहे पाइआ है। जिहनां सच नाम दा वापार कीता उहनां सिर (मैं/ अहंकार/ हउमे) दे के नाम (सोझी) लई है। "मनु बेचै सतिगुर कै पासि॥। जिहनां ने नाम दी खेती कीती नाम बीजिआ उहनां दे घट विच ही नाम दा बूटा लगिआ।
"नामो बीजे नामो जंमै नामो मंनि वसाए॥
"गुरमुखि बीजे सचु जमै सचु नामु वापारु॥
"नामु खेती बीजहु भाई मीत॥सउदा करहु गुरु सेवहु नीत॥
नानक नामु बीजि मन अंदरि सचै सबदि सुभाए ॥२॥
नाउ बीजे नाउ उगवै नामे रहै समाइ ॥
"अगिआन मती अंधेरु है बिनु पिर देखे भुख न जाइ ॥ – इह सोचण वाली गल है के जे अकाल मूरत है, जिसदा "रूपु न रेख न रंगु किछु ति्रहु गुण ते प्रभ भिंन ॥ उसनूं वेखणा किवें है ता के मन दी भुख उतर जावे। इही बाणी तों खोजणा है बाणी दी अते गुणां दी विचार राहीं।
दुख भुख नह विआपई जे सुखदाता मनि होइ ॥
आखणु आखि न रजिआ सुनणि न रजे कंन॥ अखी देखि न रजीआ गुण गाहक इक वंन॥ भुखिआ भुख न उतरै गली भुख न जाइ॥ नानक भुखा ता रजै जा गुण कहि गुणी समाइ॥
सतिगुरि नामु बुझाइआ विणु नावै भुख न जाई॥
गुरि आसा मनसा पूरीआ मेरी जिंदुड़ीए हरि मिलिआ भुख सभ जाए राम ॥
जिनी हरि हरि नामु धिआइआ तिनी पाइअड़े सरब सुखा॥ सभु जनमु तिना का सफलु है जिन हरि के नाम की मनि लागी भुखा॥ जिनी गुर कै बचनि आराधिआ तिन विसरि गए सभि दुखा॥ ते संत भले गुरसिख है जिन नाही चिंत पराई चुखा॥ धनु धंनु तिना का गुरू है जिसु अंम्रित फल हरि लागे मुखा॥६॥
सतिगुरि मिलिऐ नामु ऊपजै तिसना भुख सभ जाइ ॥ – सति गुर (सचे दे गुणां) दी प्रापती हुंदिआं नामु (सोझी) प्रापत हुंदी है जिस नाल सब त्रिसना सब भुखां खतम हो जांदीआं हन।
गुरु पूरा हरि उपदेसु देइ सभ भुख लहि जाईऐ ॥
गुर का सबदु अंम्रितु है सभ त्रिसना भुख गवाए ॥
साचा नामु मेरा आधारो॥ साचु नामु अधारु मेरा जिनि भुखा सभि गवाईआ॥करि सांति सुख मनि आइ वसिआ जिनि इछा सभि पुजाईआ॥
साकत नर सभि भूख भुखाने दरि ठाढे जम जंदारे ॥६॥
भुख किवें उतरनी?
गुरमुखि त्रिसना भुख गवाए॥ – गुणां नूं मुख (अगे) रखिआं।
त्रिसना भुख विकराल नाइ तेरै ध्रापीऐ॥
हरि रसु पी सदा त्रिपति भए फिरि त्रिसना भुख गवाइआ ॥५॥
इसु जग महि संती धनु खटिआ जिना सतिगुरु मिलिआ प्रभु आइ॥ सतिगुरि सचु द्रिड़ाइआ इसु धन की कीमति कही न जाइ॥ इतु धनि पाइऐ भुख लथी सुखु वसिआ मनि आइ॥ जिंन॑ा कउ धुरि लिखिआ तिनी पाइआ आइ॥ मनमुखु जगतु निरधनु है माइआ नो बिललाइ॥ अनदिनु फिरदा सदा रहै भुख न कदे जाइ॥
प्रभु मेरा थिर थावरी होर आवै जावै॥ सो मंगा दानु गोुसाईआ जितु भुख लहि जावै॥ प्रभ जीउ देवहु दरसनु आपणा जितु ढाढी त्रिपतावै॥
जिसु मनि वसै पारब्रहमु निकटि न आवै पीर॥ भुख तिख तिसु न विआपई जमु नही आवै नीर॥३॥ – पर अज दे सिखां नूं ब्रहमा, ब्रहम, पूरनब्रहम अते पारब्रहम दा गिआन लैण दी भुख ही नहीं है। फ़रक ही नहीं पता।
गुरमुखि अंम्रितु नामु है जितु खाधै सभ भुख जाइ ॥ – गुर मुखि (गुणां नूं मुख रखिआ अंम्रित (सदीव रहण वाला नारद (नारद होण वाला) नामु (गिआन/सोझी) प्रापत होणी जिस नूं सेव करण ते सारीआं भुखां जाणीआं।
जिन॑ा गुरमुखि नामु अराधिआ तिना दुख भुख लहि जाइ ॥
सतिगुरि मिलिऐ नामु ऊपजै त्रिसना भुख सभ जाइ ॥
जिना इक मनि इक चिति धिआइआ सतिगुर सउ चितु लाइ॥ तिन की दुख भुख हउमै वडा रोगु गइआ निरदोख भए लिव लाइ॥
स़बद विचार
तिन का खाधा पैधा माइआ सभु पवितु है जो नामि हरि राते॥ तिन के घर मंदर महल सराई सभि पवितु हहि जिनी गुरमुखि सेवक सिख अभिआगत जाइ वरसाते॥ तिन के तुरे जीन खुरगीर सभि पवितु हहि जिनी गुरमुखि सिख साध संत चड़ि जाते॥ तिन के करम धरम कारज सभि पवितु हहि जो बोलहि हरि हरि राम नामु हरि साते॥ जिन कै पोतै पुंनु है से गुरमुखि सिख गुरू पहि जाते॥
"तिन का खाधा पैधा माइआ सभु पवितु है जो नामि हरि राते॥- इथे गल अंतरीव है। किउंके बदेही दा खाणा भोजन मन दा खाणा गिआन है इस लई "तिन का खाधा दा भाव है "भोजन गिआनु महा रसु मीठा॥ जां "ब्रहम गिआनी का भोजनु गिआन॥ इह गिआन दा भोजन पवितर है।, पैधा दा अरथ पहरिआ होइआ, फेर बदेही दी गल नहीं देही, घट दी गल हुंदी। बाणी विच औंदा है "कूड़ निखुटे नानका ओड़कि सचि रही॥२॥ ते सच किथे ओड़ना है? सच देही दा कपड़ा है। इथे भाव बणदा जिहनां गिआन दा भोजन छकिआ, सच ओडिआ, जिहड़े हरि दे नाम (सोझी) विच रते ने उहनां दा गिआन दा भोजन, सच दा कपड़ा पवित है। बचिआ माइआ इस नूं समझण लई वेखणा पैणा "गुरमुखि सभ पवितु है धनु संपै माइआ ॥, गुरमुख केवल नाम धन दी माइआ संपै (कठी) करदा है।
भाव – गिआन दा भोजन, सच दा कपड़ा, उहनां दा पवितर है जिहड़े हरि दे नाम (सोझी) विच भिजे होए ने
"तिन के घर मंदर महल सराई सभि पवितु हहि जिनी गुरमुखि सेवक सिख अभिआगत जाइ वरसाते॥ – घर मंदर है "हरि मंदरु एहु सरीरु है गिआनि रतनि परगटु होइ॥, "प्रभु हरिमंदरु सोहणा तिसु महि माणक लाल ॥ जिहड़े घट विच नाल (गिआन तों प्रापत सोझी) दा चानणा है उस घट नूं पवितर आखदे हन। जिवें असीं घर मंदर वरतदे हां मुसलमान वी महल सराई वरतदे हन। अरथ इह घट पवितर है निरमल है जे गुरमुखि (गिणां नूं मुख रखिआ) सेवक (जिहड़े सबद विचार करदे हन "गुर की सेवा सबदु वीचारु॥), सिख जों भाणे विच है "सो सिखु सखा बंधपु है भाई जि गुर के भाणे विचि आवै ॥, अभिआगत हुंदा है "अभिआगत सेई नानका जि आतम गउणु करेनि ॥ इसदा दुनिआवी अरथ हुंदा है गैसट, परुहणा जां महमान। बौध धरम विच बुध नूं अभिआगत वी आखदे सी पर गुरमति ने जो अरथ कीते हन के जो आपणे आपे नूं तिआगे मैं मारे, वरसावै (वार देवे) जिवें बाणी विच दरज है "सभ को तुम ही ते वरसावै अउसरु करहु हमारा पूरा जीउ ॥२॥
भाव – उहनां दा घट (हिरदा) पवितर है जिहनां आपणा आपा प्रभ ते वारिआ है।
तिन के तुरे जीन खुरगीर सभि पवितु हहि जिनी गुरमुखि सिख साध संत चड़ि जाते॥ – "तुरे जीन खुगीर दा अरथ है मन दे खिआल जो तुरे(तुरंग घौड़े) वांग भजदे हन। जीन खुरगीर काठी ते लगाम जिहनां मन नूं साध लिआ गिआन नाल हुण प्रभ (संत) इस मन दे घोड़े ते सवारी करदा
भाव – मन हुण मनु हो गिआ है काबू हो गिआ है। जिहड़ा मन घोड़े वांग भजदा सी हुण नाम दी काठी लग गई है उसते ते प्रभ (संत)/ हरि इसदी सवारी करदा है। सिस विच हुण विकार नहीं हन इह मन पवितर है।
"तिन के करम धरम कारज सभि पवितु हहि जो बोलहि हरि हरि राम नामु हरि साते॥ – जिंनां नूं हरि/राम दे गिआन दी सोझी अरथ नाम परापत हो गिआ उहना दे करम, धरम सब पवितर हो जांदा है किउ के उहनां दा मन सच (अकाल/काल/हुकम) दे गुणां दी विचार ते नाम (सोझी) तों बाहर नहीं जांदा। इही गल दूजे तरीके नाल वी बाणी विच समझाई है "सरब धरम महि स्रेसट धरमु॥ हरि को नामु जपि निरमल करमु॥, निरमल करम दा अरथ हुंदा मल रहित। विकारां दी मल रहित।
जिन कै पोतै पुंनु है से गुरमुखि सिख गुरू पहि जाते ॥१६॥ – पोता दा अरथ है पोटली, गठरी, खजाना। गुरमति दुनिआवी पाप पुंन दी परिभास़ा नहीं मंनदी। इह साडे वस विछ नहीं हन। हुकम बध हन। गुरबाणी विच दरज है "पाप पुंन दुइ एक समान॥, "पाप पुंन हमरै वसि नाहि ॥, इह दुनिआवी पाप पुंन दी सोच सिम्रित सासतर तों आई है "सिम्रिति सासत्र पुंन पाप बीचारदे ततै सार न जाणी॥। गुरमति आखदी "हुकमै अंदर सब को बाहर हुकम ना कोई॥। फेर गुरमति पुंन की है जो इस पंकती विच आखदे हन। उह है "कलि महि एहो पुंनु गुण गोविंद गाहि॥।
भाव – जिहना दे खजाने विच गोबिंद दे गुण गाइन है, गुणां दी सोझी है उह गुणां नूं मुख रखण वाले गुरमुखि सजण, सिख ("सो सिखु सखा बंधपु है भाई जि गुर के भाणे विचि आवै॥) भाणे विच आ के गुरू वांग हो जादे हन। जदों गुरू दे गुण धारण कर लए तां गुरमुखि गुरू वांग ही हो जांदा है "हरि जनु ऐसा चाहीऐ जैसा हरि ही होइ॥
सो भाई गुरमति गिआन तों सोझी प्रापत करो। गुणां दी विचार करो तां के मनु दी भुख उतरे। दाल रोटी तां उसने दे ही देणी है "सैल पथर महि जंत उपाए ता का रिजकु आगै करि धरिआ ॥१॥ जे तुसीं भोजन ना वी वरताउंगे उसने आपे दे देणा, इह तुहाडा मनुखा धरम है इस नूं हंकार दा साधन ना बणावो। गुरमति दी विचार करो सोझी लवो जिसदा लंगर अतुट वरत रहिआ है हर समे। इही सब तों वडा दान है जो सानूं भगतां ते गुरूआं ने वरताइआ है जिस वल धिआन देणा है।
Source: ਲੰਗਰੁ, ਭੁੱਖ ਅਤੇ ਮਨ ਦਾ ਭੋਜਨ