Source: ਸੰਤੋਖ

संतोख

संतोख दा स़बदी अरथ है संतुस़टी ( satisfaction)। स्रिसटी दे सारे ही जीव इनसान तों जिआदा संतोख रखदे हन। उतभुज स़्रेणी दे जीव जिवें पेड़ पौदे आपणी जगह ते खड़े रहिंदे हन, जदों अकाल दा हुकम होइआ मींह पिआ तां पाणी मिल गिआ हरिआ हो गिआ नहीं मिलिआ तां वी कोई गल नहीं। दूजिआं नूं फल देणा, छां देणा, लकड़ दे रूप विच अग देणा जारी रखदे। अंडज स़्रेणी दे जीव अरथ अंडे तों पैदा होण वाले जीव बचिआं लई तड़्हफ़दे नहीं जदों बचे वडे हो जांदे हन उड जांदे हन ते पंछी कुरलाउंदे नहीं। पंछी कदे वी लोड़ तों जिआदा कठा नहीं करदे। जे खाण नूं कुझ लभ जावे ठीक है नहीं तां स़ाम नूं घरे मुड़ आउंदा। जेरज स़्रेणी दे जीव याने जरासीम जिहनां नूं अंग्रेजी विच जरम वी आखदे हन, हुकम विच विचरदे हन। सेतज स़्रेणी दे जीव अरथ मात गरभ तों जमण वाले जीव बचिआं नूं पालदे हन मोह नहीं रखदे, वडे होण ते आपणे आप तों अलग कर दिंदे हन। लोड़ तों जिआदा नहीं खांदे। काम वासना वी नहीं हुंदी है। फेर वी मनुख जनम नूं स्रेस़ट मंनिआ गिआ है "लख चउरासीह भ्रमतिआ दुलभ जनमु पाइओइ॥ ।मनुख दा बचा वी जदों पैदा हुंदा है तां माइआ विच फसिआ नहीं हुंदा। हजारां लखां रुपिआ, कई किलो सोना वी पिआ होवे उसने वेखणा वी नहीं। जिउं जिउं वडा हुंदा है उसदा मोह वी वडा हुंदा रहिंदा है विकार हावी होण लगदे हन संसार विच दूजिआं नूं माइआ मगर भजदे वेखदिआं। हुकम नूं भुल जांदा है ते करता भाव आ जांदा है। सबर संतोख घट हो जांदा है। बाणी आखदी "या जुग महि एकहि कउ आइआ॥ जनमत मोहिओ मोहनी माइआ॥। इस जनम विच परमेसर दे हुकम नाल एके लई आइआ सी पर माइआ ने मोह लिआ।

"साधो गोबिंद के गुन गावउ॥ मानस जनमु अमोलकु पाइओ बिरथा काहि गवावउ॥

मानस जनम अकारथ खोवत लाज न लोक हसन की॥

मानस जनमु दीओ जिह ठाकुरि सो तै किउ बिसराइओ॥ मुकतु होत नर जा कै सिमरै निमख न ता कउ गाइओ॥

भजहु गोुबिंद भूलि मत जाहु॥ मानस जनम का एही लाहु॥१॥

मानस जनमि सतिगुरू न सेविआ बिरथा जनमु गवाइआ॥

अनिक जनम भ्रमतौ ही आइओ मानस जनमु दुलभाही॥ गरभ जोनि छोडि जउ निकसिओ तउ लागो अन ठांही॥१॥

कबीर मानस जनमु दुलंभु है होइ न बारै बार॥ जिउ बन फल पाके भुइ गिरहि बहुरि न लागहि डार॥३०॥

उपरोकत पंकतीआं विच गोबिंद अते सेवा दी गल होई है। कदे सोचिआ की सेवा की है? "सभु गोबिंदु है सभु गोबिंदु है गोबिंद बिनु नही कोई॥ पूरी स्रिसटी ही गोबिंद ( गो अरथ परमेसर बिंद अरथ बीज है) अते गुर की सेवा है "गुर की सेवा सबदु वीचारु॥ हउमै मारे करणी सारु ॥७॥"

सुखु नाही बहुतै धनि खाटे॥ सुखु नाही पेखे निरति नाटे॥ सुखु नाही बहु देस कमाए॥ सरब सुखा हरि हरि गुण गाए॥१॥ सूख सहज आनंद लहहु॥ साधसंगति पाईऐ वडभागी गुरमुखि हरि हरि नामु कहहु॥१॥

सुखु मांगत दुखु आगै आवै॥ सो सुखु हमहु न मांगिआ भावै ॥१॥"

गुरमति सानूं समझाउंदी है के संतोख किवें होवे। सचा संतोख की है। घर लै लैणा, पैसा होणा, पेट भरिआ होणा सच संतोख नहीं। दुनिआवी पदारथा दी प्रापती नाल रज कदे वी नहीं आउंदा। मन नूं विकारां कारण हर समे असंतोख रहिंदा, भुख रहिंदी हे आस रहिंदी है। असीं तां अरदास विच वी दुनिआवी पदारथ मंगदे हां, महाराज गडी दे देवो, घर दे देवो, राज दे देवो, नौकरी दे देवो गुरमति तां आखदी "राजु न चाहउ मुकति न चाहउ मनि प्रीति चरन कमलारे॥ अरथ राज नहीं मंगदा मुकती वी नहीं मंगदा बस आपणे चरणां विच आपणे हुकम विच रख। गुरबाणी आखदी "सतु संतोखु होवै अरदासि॥ ता सुणि सदि बहाले पासि ॥१॥" जिसदा अरथ सपस़ट है के जे सचे संतोख दी अरदास होवे तां उसने आपणे नेड़े रखणा। गुरमति आखदी "विणु तुधु होरु जि मंगणा सिरि दुखा कै दुख॥ देहि नामु संतोखीआ उतरै मन की भुख॥ जिसदा अरथ है मैनूं नाम (सोझी) बखस़ो के तुहाडे इलावा मैं होर कुझ इछा ना करां। नाम (गिआन/सोझी) नाल ही संतोख अरथ संतुस़टी मिलनी ते मन की भुख मिटे। ताहीं आखिआ "ब्रहम गिआनी का भोजनु गिआन ॥

"त्रिहु गुण महि वरतै संसारा॥ नरक सुरग फिरि फिरि अउतारा॥३॥ – त्रै गुण माइआ रजो (राज/धन दी इछा) सतो (धरमी दिसण दी इछा) तमो (सरीर दी/काम वासना) कारण, हउमै, मोह भरम ते भै कारण भार सिर ते लैके तुरदा है मनुख। गुरमति दा फुरमान है "बिना संतोख नही कोऊ राजै॥, संतोख तों बिनां रज नहीं आउंदा। ते रज आउंदा संतोख आउंदा नाम (गिआन/सोझी) नाल "त्रिपति न आवै माइआ पाछै पावै॥ अनिक भोग बिखिआ के करै॥ नह त्रिपतावै खपि खपि मरै॥ बिना संतोख नही कोऊ राजै॥ सुपन मनोरथ ब्रिथे सभ काजै॥ नाम रंगि सरब सुखु होइ॥ बडभागी किसै परापति होइ॥ करन करावन आपे आपि॥ सदा सदा नानक हरि जापि॥। बिअंत उदाहरण ने गुरबाणी विच संतोख दी प्रापती समझाई है गुरमति ने।

इहु मनु साचि संतोखिआ नदरि करे तिसु माहि॥ पंच भूत सचि भै रते जोति सची मन माहि॥ नानक अउगण वीसरे गुरि राखे पति ताहि ॥४॥१५॥" – जे सच दी समझ आ जावे समझ आ जावे के "जग रचना सभ झूठ है जानि लेहु रे मीत॥ कहि नानक थिरु ना रहै जिउ बालू की भीति ॥४९॥" तां कामावां ते बंन पै जांदा। तां सचा संतोखी हुंदा मनु। इह हुंदा किवे? "सुणिऐ सतु संतोखु गिआनु॥ गुरमति सुणन समझण उपरंत। "सचु मिलै संतोखीआ हरि जपि एकै भाइ॥ – हरि (मन जदों गिआन ते सोझी नाल हरिआ हो जांदा, एकै (एकता दे) भाइ (भावना) नूं जपि (पछाण) के। मनुख दे घट अंदरली जोत आपणे मूल प्रभ तों टुटी होई है। इसदा दरगाह तों निकाला होइआ है, जदों इह दरगाही हुकम नूं मंन लवेगा भाणे विच रहिणा सिख जाणा उदों इसनूं सचा संतोख प्रापत हो जाणा फेर कहू "अनदु भइआ मेरी माए सतिगुरू मै पाइआ॥ माए इथे मति/बुधी लई वरतिआ गिआ है। "नानक नामि संतोखीआ जीउ पिंडु प्रभ पासि॥ – नानक पातिस़ाह दस रहि ने के "नामि संतोखीआ नाम (सोझी) दुआरा संतोखी होणा जदों "जीउ पिंड प्रभ पास जदों धिआन जदों एकागरता प्रभ नाल होणी उसदे हुकम नाल होणी। इस गल दी पुस़टी फेर करदे ने "नामु सालाही रंग सिउ गुर कै सबदि संतोखु॥ नाम (सोझी) दी सिफ़त है जो गुर दा रंग उसदे सबदु (हुकम) दुआरा संतोख दा रंग चड़्हना।

नानक गुरु संतोखु रुखु धरमु फुलु फल गिआनु॥ रसि रसिआ हरिआ सदा पकै करमि धिआनि॥ पति के साद खादा लहै दाना कै सिरि दानु॥१॥ – गुरु (गुणां दा धारणी) संतोख दे रुख (पेड़) वरगा है जिसते धरमु फुल हुंदा है ते गिआन दा फल लगदा। इह सोझी दे रस नाल रसिआ होण कारण हमेस़ा हरिआ रहिंदा। इही गल आखी "हरि का नामु धिआइ कै होहु हरिआ भाई ॥ हरि दे नाम (सोझी) नूं धिआइ (धिआन रखे) के हरिआ होणा है। इही गल समझाई जदों कहिआ है के "मेरे माधउ जी सतसंगति मिले सु तरिआ॥ गुर परसादि परम पदु पाइआ सूके कासट हरिआ ॥१॥ – सति दी संगत है हुकम दी गुरमति गिआन दी, मूल/प्रभ/जोत दी संगत। गुर प्रसादि है गुणां दी गिआन दुआरा विचार दुआरा प्रापत नाम (सोझी) दा अंम्रित जिस नाल मन ने हरिआ होणा। अगिआनता कारण, मनमित कारण मन सूका है (सुका पइआ है)। नीचे दितीआं पंकतीआं नूं धिआन नाल, प्रेम नाल हौलौ हौली समझ के पड़्हो।

माइआ तपति बुझिआ अंगिआरु॥ मनि संतोखु नामु आधारु॥ जलि थलि पूरि रहे प्रभ सुआमी॥ जत पेखउ तत अंतरजामी॥३॥

चउदसि चउदह लोक मझारि॥ रोम रोम महि बसहि मुरारि॥ सत संतोख का धरहु धिआन॥ कथनी कथीऐ ब्रहम गिआन॥१५॥

किस कउ कहहि सुणावहि किस कउ किसु समझावहि समझि रहे॥ किसै पड़ावहि पड़ि गुणि बूझे सतिगुर सबदि संतोखि रहे॥१॥

तिसन बुझी आस पुंनी मन संतोखि ध्रापि॥ वडी हूं वडा अपार खसमु जिसु लेपु न पुंनि पापि॥

आखणि अउखा आखीऐ पिआरे किउ सुणीऐ सचु नाउ॥ जिन॑ी सो सालाहिआ पिआरे हउ तिन॑ बलिहारै जाउ॥ नाउ मिलै संतोखीआं पिआरे नदरी मेलि मिलाउ॥७॥

गुरमुखि चितु न लाइओ अंति दुखु पहुता आइ॥ अंदरहु बाहरहु अंधिआं सुधि न काई पाइ॥ पंडित तिन की बरकती सभु जगतु खाइ जो रते हरि नाइ॥ जिन गुर कै सबदि सलाहिआ हरि सिउ रहे समाइ॥ पंडित दूजै भाइ बरकति न होवई ना धनु पलै पाइ॥ पड़ि थके संतोखु न आइओ अनदिनु जलत विहाइ॥ कूक पूकार न चुकई ना संसा विचहु जाइ॥ नानक नाम विहूणिआ मुहि कालै उठि जाइ॥२॥

कोटि जतन संतोखु न पाइआ॥ मनु त्रिपताना हरि गुण गाइआ॥३॥ – गुर किवें गाणे हन, नाम की है, अंम्रित की है, इस बारे पहिलां ही इस साईट ते लिखिआ गिआ है। साईट ते खोज के पसकदे हों।

हरि का जसु निधि लीआ लाभ॥ पूरन भए मनोरथ साभ॥ दुखु नाठा सुखु घर महि आइआ॥ संत प्रसादि कमलु बिगसाइआ॥२॥ नाम रतनु जिनि पाइआ दानु॥ तिसु जन होए सगल निधान॥ संतोखु आइआ मनि पूरा पाइ॥ फिरि फिरि मागन काहे जाइ॥३॥

साची संगति थानु सचु सचे घर बारा॥ सचा भोजनु भाउ सचु सचु नामु अधारा॥ सची बाणी संतोखिआ सचा सबदु वीचारा॥६॥ – बाणी दी विचार कीतिआं ही नाम (सोझी) दी प्रापती होणी, हुकम दी समझ होणी। इसनूं होर समझाउण लई महाराज आखदे "सत संतोखी सतिगुरु पूरा॥ गुर का सबदु मने सो सूरा॥ साची दरगह साचु निवासा मानै हुकमु रजाई हे॥

सच बिनु सतु संतोखु न पावै॥ बिनु गुर मुकति न आवै जावै॥ मूल मंत्रु हरि नामु रसाइणु कहु नानक पूरा पाइआ॥५॥

गुरमति विचों गिआन लैणा, सोझी लैण नाल आतमिक आनंद ते सच संतोख दी प्रापती हुंदी है। जदों सिख नूं इह समझ आ जावे तां उह पखंड भगती छड गुरू दी स़रण विच आ जावेगा। सारे धरम, सारीआं मतां, सारे धिड़े करम (जोर लाए, कुझ कीतिआं प्रापती) दी गल करदे हन ते गुरबाणी ही हुकम दी सोझी दे के मनुख नूं विकारां ते काबू करना सिखाउंदी है। परमेसर ते पूरन भरोसा, आतमिक आनंद दी प्रापती दा केवल इको मारग है नाम (गिआन/ सोझी) । इस लई भाई गुरबाणी दी विचार करो। इह गिआन दा खजाना सानूं बख़स़िआ गिआ है बंधन मुकत होण लई, आतमिक आनंद लई।

कबीर जी आखदे "कबीर साधू की संगति रहउ जउ की भूसी खाउ॥ होनहारु सो होइहै साकत संगि न जाउ॥ – साधू (साधिआ होइआ मन) दी संगत नहीं छडणी भावें जउ दी भूसी खा के गुज़ारा करना पवे। जो होणा होई जाणा पर साकत (अगिआनता कारण विकारां विच भटकदा मन) दे नाल नहीं जाणा। जिहड़े माइआ दीआं अरदासां करदे उहनां नूं संतोख कदे वी नहीं हो सकदा। जिहड़ा संतोखी हुंदा उह तां आखदा "रुखी सुखी खाइ कै ठंढा पाणी पीउ॥ फरीदा देखि पराई चोपड़ी ना तरसाए जीउ ॥२९॥"


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