Source: ਸਾਨੂੰ ਕੌਣ ਚਲਾ ਰਹਿਆ ਹੈ? ਸਾਡੇ ਤੇ ਕਿਸਦਾ ਹੁਕਮ ਚਲਦਾ?

सानूं कौण चला रहिआ है? साडे ते किसदा हुकम चलदा?

ओहु अबिनासी राइआ॥ निरभउ संगि तुमारै बसते इहु डरनु कहा ते आइआ॥१॥ रहाउ॥ एक महलि तूं होहि अफारो एक महलि निमानो॥ एक महलि तूं आपे आपे एक महलि गरीबानो॥१॥ एक महलि तूं पंडितु बकता एक महलि खलु होता॥ एक महलि तूं सभु किछु ग्राहजु एक महलि कछू न लेता॥२॥ काठ की पुतरी कहा करै बपुरी खिलावनहारो जानै॥ जैसा भेखु करावै बाजीगरु ओहु तैसो ही साजु आनै॥३॥ अनिक कोठरी बहुतु भाति करीआ आपि होआ रखवारा॥ जैसे महलि राखै तैसै रहना किआ इहु करै बिचारा॥४॥ जिनि किछु कीआ सोई जानै जिनि इह सभ बिधि साजी॥ कहु नानक अपरंपर सुआमी कीमति अपुने काजी॥५॥५॥१२६॥ (रागु गउड़ी, म ५, ࡨࡦ࡬)

"ओहु अबिनासी राइआ – अबिनासी हुंदा जिसदा नास ना हो सके, जो अजर होवे अमर होवे। अकाल/अलाह अबिनासी है, जीव दी जोत (जीव दा मूल) अबिनासी है , हुकम अबिनासी है। आद सच है ते जुगाद वी सच है। समे चकर तों पहिलां वी सच सी ते जुगाद (जुगां दे अंत तो बाद) वी सच रहिणा।

“निरभउ संगि तुमारै बसते इहु डरनु कहा ते आइआ॥१॥” – इथे सवाल पुछिआ जा रहिआ के उह जिसदा नास नहीं हो सकदा जोत रूप विच तेरे संग वसदा फेर तेरा डर किथों आइआ। "कबीर जा कउ खोजते पाइओ सोई ठउरु॥ सोई फिरि कै तू भइआ जा कउ कहता अउरु॥८७॥, "अंडज जेरज सेतज उतभुज घटि घटि जोति समाणी॥, "मन तूं जोति सरूपु है आपणा मूलु पछाणु॥ मन हरि जी तेरै नालि है गुरमती रंगु माणु॥ मूलु पछाणहि तां सहु जाणहि मरण जीवण की सोझी होई॥। बिअंत उदाहरणां ने गुरबाणी विच जीव नूं उसदी होंद दा चेता कराउण लई।

एक महलि तूं होहि अफारो एक महलि निमानो॥ एक महलि तूं आपे आपे एक महलि गरीबानो॥१॥ एक महलि तूं पंडितु बकता एक महलि खलु होता॥ एक महलि तूं सभु किछु ग्राहजु एक महलि कछू न लेता॥२॥” – बाहर महल लबदां, घर, गुरदुआरे तीरथ लबदां। कोई कास़ी जा रहिआ, कोई मके, कोई हरिमंदर। गुरमति आखदी अंदर जिहड़ा हरि दा महिल है उह नहीं दिसदा "हरि मंदरु एहु सरीरु है गिआनि रतनि परगटु होइ॥ मनमुख मूलु न जाणनी माणसि हरि मंदरु न होइ॥२॥ हरि मंदरु हरि जीउ साजिआ रखिआ हुकमि सवारि॥ धुरि लेखु लिखिआ सु कमावणा कोइ न मेटणहारु॥३॥ सबदु चीनि॑ सुखु पाइआ सचै नाइ पिआर॥ हरि मंदरु सबदे सोहणा कंचनु कोटु अपार॥४॥ जदों जीव आतम चिंतन नाल गुर (गुण) लै के, हरिआ होइआ इह घट अंदर ही हरि दा मंदर बण जाणा। गुरमति आखदी बाहर दी बदेही दिसदी पर इस बदेही दे अंदर जो देही है घट/हिरदा है उह नहीं दिसदा। "देही गुपत बिदेही दीसै॥। जदों नाम (सोझी) हो गी अंदर ही अंम्रित (सोझी) प्रापत होणी जिस नाल जीव ने हरिआ होणा।

“काठ की पुतरी कहा करै बपुरी खिलावनहारो जानै॥ जैसा भेखु करावै बाजीगरु ओहु तैसो ही साजु आनै॥३॥” – बाहर दी बदेही तां काठ दी पुतरी (कठ पुतली) है जिसनूं अंदर बैठी जोत, अंदर बैठा मूल़ चला रहिआ है खिलावनहार है। इह जेहो जहिआ बाहरी भेख कर रहिआ गिआन विच जां अगिआनता विच वैसा ही बाहरी भेख बणा लैंदी इह कठपुतली।

“अनिक कोठरी बहुतु भाति करीआ आपि होआ रखवारा॥ जैसे महलि राखै तैसै रहना किआ इहु करै बिचारा॥४॥” – जीव दा मूल आपणी मरजी नाल कई भेख कर कर के आउंदा रहिआ है। "असथावर जंगम कीट पतंगा॥ अनिक जनम कीए बहु रंगा॥१॥ ऐसे घर हम बहुतु बसाए॥ जब हम राम गरभ होइ आए॥१॥ रहाउ॥ जोगी जती तपी ब्रहमचारी॥ कबहू राजा छत्रपति कबहू भेखारी॥२॥ कबीर जी आखदे इदां दे घर असीं बथेरे वसाए ने, कदे जानवर, कदे कीट पतंगे, कदे राजे कदे भेखारी। जदों तां आपणी मति चलदी रही इह भेख धारण हुंदे रहिणे। हुकम नूं मंन के ही सुख मिलदा।

“जिनि किछु कीआ सोई जानै जिनि इह सभ बिधि साजी॥ कहु नानक अपरंपर सुआमी कीमति अपुने काजी॥५॥५॥१२६॥” – जो करता है उही जाणदा, उसदा हुकम चलदा। उह जिसनूं कोई नहीं चला सकदा ते चला रहिआ उही आपणी कीते दी कीमत जानण वाला है। ॳसुदॲ हुकम ही सति है।


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