Source: ਦਸਵਾ ਦੁਆਰ / ਦਸਮ ਦੁਆਰ

दसवा दुआर / दसम दुआर

पसचम दुआरे की सिल ओड़॥
तिह सिल ऊपरि खिड़की अउर॥
खिड़की ऊपरि दसवा दुआरु॥
कहि कबीर ता का अंतु न पारु॥(११५९)

भगत कबीर जी इस सबद विच सिव की पुरी, दसवा दुआर, अते राजा राम दी गल करदे हन। इस सबद राही सानूं की सिखिआ दे रहे हन। आउ विचार करदे हां। हुण पहिला सवाल, गुरमति अनुसार सिव कौण है।
उतर, करता,अकाल पुरख, परमेस़र। तीजे पातशाह गुरबाणी अंदर फ़ुरमाण करदे हन।

सिव सकति आपि उपाइ कै करता आपे हुकमु वरताए॥
हुकमु वरताए आपि वेखै गुरमुखि किसै बुझाए॥

हुण सबद दी बीचार।

सिव की पुरी बसै बुधि सार॥तह तुम॑ह मिलि करहु बिचारु॥ ईत ऊत की सोझी परै॥ कउनु करम मेरा करि करि मरै॥ निज पद ऊपरि लागो धिआन॥ राजा नामु मोरा ब्रहम गिआन॥१॥रहाउ॥ मूल दुआरे बंधिआ बंधु॥ रवि ऊपरि गहि राखिआ चंदु॥ पछम दुआरै सूरज तपै॥ मेर डंड सिर ऊपरि बसै॥ २॥ पसचम दुआरे की सिल ओड़॥ तिह सिल ऊपरि खिड़की आउर॥ खिड़की ऊपरि दसवा दुआरु॥ कहि कबीर ता का अंतु न पारु॥३॥२॥१०॥

सिव की पुरी बसै बुधि सार॥
तह तुम॑ह मिलि करहु बिचारु॥

भगत कबीर जी दूसरीआ मता वालिआ नूं आख रहे हन कि तुसी ता सिव की पुरी बाहर कासी नूं मंनदे हो। पर मेरा हिरदा सिव की पुरी है किउके इथै सार बुध भाव बिबेक बुध वसदी है। बेदा विच लिखिआ है कि जिथै सार बुध हुंदी है ओथै सिव की पुरी हुंदी है। पर भगत कबीर जी कहिंदे इथे कासी विच सार बुध हैनी। सगलु जनम सिव पुरी गवाइआ॥ मरती बार मगहरि उठि आइआ। कहिंदे मे सार बुध परापत करन लई सारा जीवन सिव की पुरी कासी विच ही गवा दिता। कहिंदे इह तां चंगा हो गिआ कि जीवन दे आखरी समे भाव बुढापे विच मगहर सहिर आ गिआ। जे इथै सार बुध हुंदी तां मैनूं मगहर किउ जाणा पैंदा॥ भगत कबीर जी ने पहिला प्रभू दा दरस़न, समझ गिआन मगहर विच ही पाइआ भाव कीता सी। पहिले दरसनु मगहर पाइओ फुनि कासी बसे आई॥ बाअद विच फिर गिआन प्रापत करके कासी विच वस गए सन।

तह तुम॑ह मिलि करहु बिचारु॥ कहिंदे तुसी मिल के बिचार भाव इक मन, इक चित हो के हिरदे अंदर बेठ के विचार करो। कहिण तो भाव जे तुसी वी सार बुध परापत करनी चहुंदे हो तां हिरदे विच बेठ के इक मन इक चित हो के गुरबाणी नूं विचारो समझो। अज बहुते वीर भैण जदो गुरबाणी पड़दे हन। उह सिरफ खाना पूरती लई ही पड़दे हन। मूंह नाल गुरबाणी पड़ रहे हुंदे हन। पर मन धिआन किते होर तुरिआ फिरदा हुंदा है। ता ही ता कुझ प्रापती नही हुंदी।

ईत ऊत की सोझी परै॥
कउनु करम मेरा करि करि मरै॥

कहिंदे जिस दे अंदर सार बुध भाव बिबेक बुध हुंदी है उस नूं ईत संसार, ऊत प्रलोक, दी सोझी हुंदी है। कउनु करम मेरा करि करि मरै। अगे कहिंदे कहिड़ा करम करीए जिस नाल मन मर जाए। असल विच बिबेक बुध नाल लोक प्रलोक दी सोझी आउण नाल ही मन दे मरन दी विधी तां पता चलेगा। गुरबाणी विचार नाल ही साडी बुध अंदर गिआन चानण प्रगास हुंदा है। असल विच गुरमित गिआन दी खड़ग नाल ही मंन मरेगा।

निज पद ऊपरि लागो धिआन॥
राजा रामु मोरा ब्रहम गिआन॥

अगै कहिंदे निज पद भाव आपणे आप नाल जुड़ो। भाव आपणे धिआन नूं आपणे मूल नाल जोड़ के रखो। मूल तो भाव जिवे इक सूरज है, दूसरीआ उस दीआ किरना, हुण इथे किरना दा मूल सूरज है। ऐवे ही जिथो साडी सुरत पैदा हुंदी है ओह है अंतर आतमा भाव परातमा। कहिण तो भाव असी धिआन अंतरमुख, अंतर आतमा,परातमा, नाल जोड़ के रखणा है।राजा नामु मोरा ब्रहम गिआन॥१॥रहाउ॥ कहिंदे मन नूं जिस गिआन ने बंन्हिआ है उह राजा राम दा नाम ब्रहम गिआन है।

गुरु मेरा गिआनु गुरु रिदै धिआन॥मूल दुआरे बंधिआ बंधु॥

जदो असी सुते हुंदे हां तां साडी सुरत अंतरमुखी अंतर आतमा साडे मूल नाल ही जुड़ी हुंदी है। अख खुलण सार सुरत दिमाग विच जांदी है। कहिंदे आपणी सुरत नूं आपणे मूल नाल ही बंन के रखो। भाव सुरत नूं दिमाग विच ना आउण दिओ।

रवि ऊपरि गहि राखिआ चंदु॥
पछम दुआरै सूरज तपै॥

रवि भाव सरज है साडा मूल, चंद है साडा मन। गुर गिआन नाल आपणे मूल रवि दे उते ही धिआन मन रूपी चंदरमे नूं टिका के रखो। पछम दुआरै सूरज तपै॥ अगे कहिंदे तेरे पछम वाले पासे सूरज तप रिहा है। कहिण तो भाव साडा धिआन बाहर मुखी पूरब भाव संसार वल है। कहिंदे आपणे धिआन नूं पछम वल भाव अंतरमुख अंतर आतमा वल कर ले। इथे ही ब्रहम अगन रूपी सूरज तप रिहा है। इस दीआं गिआन रूपी किरना नाल तेरे हिरदे दे अंदर प्रगास रोशनी चानण होणा है।

मेर डंड सिर ऊपरि बसै॥ २॥

अगे कहिंदे जिस नूं समेर परबत जिस नूं मेर डंड कहिंदा इह तां खोपरी विच है। भाव तूं दिमाग विच रहिंदा भाव वसदा है। इथो हिरदे विच वापस आ।

पसचम दुआरे की सिल ओड़॥

जदो मन हिरदे अंदर आ गिआ भाव आपणे मूल वल मूंह कर लिआ भाव धिआन अंतरमुख हो गिआ। हुण कहिंदे पसचम दुआर भाव माइआ संसार वल सिल ओड़ दे भाव मन नूं बाहर माइआ विच जाण तो रोक दे। इस तरा मूल दुआरे बंध बंनिआ जावेगा।

तिह सिल ऊपरि खिड़की आउर॥

अगे कहिंदे जदो सुरत भाव पूरा धिआन हिरदे दे अंदर टिक गिआ तां इस तो ऊपरि खिड़की आउर। ओह खिड़की किहड़ी? ओह है बाहरी सोच,बाहरी खिआल, कलपणा रूपी खिड़की। भाव सोचणा,खिअल करना,कलपणा करनी। इस खिड़की थाई मन फिर माइआ भाव संसार विच जा सकदा है। तेरे अंदर कोई वी देखी वसतू दी सोचण खिआल करन नाल इछा पैदा हो सकदी है। हुण तूं गुर उपदेश नाल बाहरी सोच बाहरी खिआल रूपी खिड़की नूं बंद करदे।

खिड़की ऊपरि दसवा दुआरु॥ कहि कबीर ता का अंतु न पारु॥३॥२॥१०॥

भगत कबीर जी इस सबद दीआ अखीर लीआ पंगतीआ विच फ़ुरमाण करदे हन कि इह बाहरी सोच बाहरी खिआल रूपी खिड़की तो उपर दसवा दुआर है।

हुण जिहड़ा भगत जिहड़ा हिरदे दे अंदर चलिआ गिआ भाव निरंकार दे देस सचखंड चलिआ गिआ। निरंकार दे देस दा अंत नही इह परे तो परे है भाव इस दा परला किनारा नही है। इस सरबउच अवसथा दा नाम है। भगत कबीर जी ने इस अवसथा विच जा के ही इस दसवे दुआर जाण दी इह विधी इह रसता दसिआ है।

जे असी वी निरंकार दे देस जाणा चहुंदे हां ता सानूं गुरमित गुरबाणी उपदेस नूं सुण के ,बिचार के ,समझ के , बुझ के,मंन के गुरमित अनुसार चलणा चाहीदा है। अते परमेस़र दे भाणे नूं मिठा करके मंनणा चाहीदा है।


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