Source: ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ
अंम्रितु पीवै अमरु सो होइ ॥
अंम्रितु पीण नाल अमर हो जांदा है,,,,
गुर का स़बद अंम्रित है जित पीतै तीख ज़ाइ
जो स़बद गुरू सानू अंदरो सुणदा ओह अंम्रित ए फिर ओस तिख पिआस बुझदी ए फिर ,,,जो असी अंम्रित नू बाहरले बदेही (सरीर) वाले मूंह नाल पींदे आ,,ओह खंडे बाटे दी पाहुल ए ,,??? पहुल ते अंम्रित च फरक ए ?? जो नामु अंम्रित ए ओस नू बाहरले मूंह नाल पीण दी लोड़ ही नही रहिणी । गुरबाणी दा फुरमान ए,,,जेकर बाहरले मूंह नाल ही अंम्रित पी हुंदा है ,,,,,,तां फिर बाहरली बदेही (सरीर) नूं अमर होणा चाहीदा है, लेकिन इह तां बाहरला सरीर किसे दा वी अमर नही हुंदा,,, इथो सपस़ट हुंदा है कि अम्रित वी मन दे पीण वाला है अते अमर वी निराकारी जोति सरूप करके ही होणा है , मुकती तो बाअद जनम पदारथ मिलणा है । इही परमपद है।
Source: ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ