Source: ਮਨ, ਤੂੰ ਜੋਤਿ ਸਰੂਪੁ ਹੈ, ਆਪਣਾ ਮੂਲੁ ਪਛਾਣੁ

मन, तूं जोति सरूपु है, आपणा मूलु पछाणु

“मन, तूं जोति सरूपु है, आपणा मूलु पछाणु ॥ मन, हरि जी तेरै नालि है, गुरमती, रंगु माणु ॥ {पंना 441}”

जिथों कोई चीज पैदा हुंदी है, उह उस चीज दा ‘मूल’ हुंदा है, जिवें कि (उदाहरन दे तौर ‘ते) धुप ‘सूरज’ तों पैदा हुंदी है, इस करके धुप दा मूल ‘सूरज’ है, अते जिथों कोई चीज पैदा हुंदी है जां उपजदी है ओसे विच(भाव कि आपणे मूल विच) ही समाउंदी है :

“बिखिआ पोहि न सकई, मिलि साधू, गुण गाहु ॥ जह ते उपजी तह मिली, सची प्रीति, समाहु ॥ {पंना 135}”

जिंना चिर इह अगिआनी है उना चिर इह ‘मन’ है, पर जदों इह आपणे मूल ‘ब्रहम’ नूं जान लैंदा है तां उदों इह ब्रहमा बण जांदा है, "बबा ब्रहमु जानत, ते ब्रहमा ॥ बैसनो ते गुरमुखि सुच धरमा ॥ {पंना 258}

किउंकि “जिनि जाता सो तिस ही जेहा ॥ अति निरमाइलु सीझसि देहा ॥ {पंना 931}”, ‘मन’ ब्रहमा(भाव कि आतम-गिआनी) बण के ही ‘ब्रहम’ विच समाअ सकदा है । "हरि नामा जसु जाचउ नाउ ॥ गुर परसादी ब्रहमि समाउ ॥१॥{पंना 355}

“उपजिआ ततु गिआनु, साहुरै पेईऐ इकु हरि, बलि राम जीउ ॥ ब्रहमै ब्रहमु मिलिआ, कोइ न साकै भिंन करि, बलि राम जीउ ॥ {पंना 778}”

{‘कोइ न साकै भिंन करि’ बड़ी महतवपूरन गल है, ‘कोइ’ भाव कि होर कोई भिंन जां भंग नहीं कर सकदा इहनां नूं, इस करके मूल-मंतर विच ‘१’ दे नाल ‘स्वै भं’ स़बद आइआ होइआ है । भाव कि जो “साहुरै पेईऐ इकु हरि” है उह आपणे-आप(स्वै) भंग/भिंन/वखरा जां दाल तां हो सकदा (अब किउ उगवै दालि), पर होर कोई इसनूं भंग/भिंन/वखरा/दाल जां दो थां नहीं कर सकदा ।}

हुण इह किवें पता लगे कि ब्रहम ही साडा मूल है ? आउ विचार करीए :

“ड़ाड़ै गारुड़ु तुम सुणहु, हरि, वसै मन माहि ॥ गुर परसादी, हरि पाईऐ, मतु को भरमि भुलाहि ॥ {पंना 936}”, जां “एक दिवस मन भई उमंग ॥ घसि चंदन चोआ बहु सुगंध ॥ पूजन चाली ब्रहम ठाइ ॥ सो ब्रहमु, बताइओ गुर, मन ही माहि ॥१॥ {पंना 1195}”

इस तों भाव इह होइआ कि ‘हरि’ जां ‘ब्रहम’, इक ही वसतू दे अलग-अलग नाम हन, जिसदा वासा ‘मन माहि’ है ।

हुण इह ‘मन’ किस स़ैअ दा नाम है ?

“घट घट मै, हरि जू, बसै, संतन कहिओ पुकारि ॥ कहु नानक तिह भजु मना भउ निधि उतरहि पारि ॥१२॥ {पंना 1427}”, जां “ववा वैरु न करीऐ काहू ॥ घट घट अंतरि ब्रहम समाहू ॥ {पंना 259}

उपर असीं वेखिआ सी कि ‘हरि’ जां ‘ब्रहम’ दा वासा ‘मन माहि’ है, पर इहनां पंगतीआं विच दसिआ जा रिहा है कि ‘हरि’ जां ‘ब्रहम’ दा वासा ‘घट’ विच है, इस तों भाव इह होइआ कि ‘मन’ जां ‘घट’ वी इक ही वसतू दे अलग-अलग नाम हन ।

‘मन’ जां ‘घट’ नूं गुरबाणी विच ‘हरि मंदर’ वी किहा होइआ है, जिवें कि :

“हरि मंदर महि, हरि वसै, सरब निरंतरि सोइ ॥ नानक गुरमुखि वणजीऐ सचा सउदा होइ ॥११॥१॥ {पंना 1346}”

उही ‘हरि’ जिहड़ा कि ‘मन’ जां ‘घट’ विच वसदा है, उसे नूं किहा गिआ है कि उह ‘हरि मंदर’ विच वसदा है, भाव कि  ‘हरि मंदर’, ‘मन’ जां ‘घट’ इक ही चीज़ हन । इह ‘हरि मंदर’, ‘मन’ जां ‘घट’ बणाइआ/साजिआ किसने है ?

“दह दिस खोजत हम फिरे, मेरे लाल जीउ, हरि, पाइअड़ा घरि आए राम ॥ हरि मंदरु, हरि जीउ साजिआ, मेरे लाल जीउ, हरि, तिसु महि रहिआ समाए राम ॥ {पंना 542}”

‘हरि मंदर’, ‘मन’ जां ‘घट’ नूं ‘हरि जीउ’ ने साजिआ है अते ‘हरि’ उस दे (भाव कि ‘हरि मंदर’, ‘मन’ जां ‘घट’ दे) विच ही समाइआ होइआ है । “हरि मंदरु, सोई आखीऐ, जिथहु, हरि, जाता ॥ मानस देह, गुर बचनी पाइआ, सभु आतम रामु पछाता ॥ बाहरि मूलि न खोजीऐ, घर माहि, बिधाता ॥ मनमुख, हरि मंदर की सार, न जाणनी, तिनी जनमु गवाता ॥ सभ महि इकु वरतदा, गुर सबदी पाइआ जाई ॥१२॥ {पंना 953}

‘हरि’ नूं किथों जाणिआ ?

“जाति महि जोति, जोति महि जाता, अकल कला भरपूरि रहिआ ॥ {पंना 469}”

जाति ‘बाहरले सरीर’ नूं किहा है अते जोति ‘मन’ है, “तन महि मनूआ, मन महि साचा ॥ सो साचा मिलि साचे राचा ॥ {पंना 686}”

‘जाति महि जोति’ जां ‘तन महि मनूआ’ इक ही गल है । ‘जोति’ = ‘मनूआ’

जेकर मन ‘जोति’ है, तां जोति दा आपणा कोई वजूद नहीं हुंदा, जोति तां किसे source (वसतू) विचों पैदा/उपजी होई रौस़नी दा नाम है, इसे करके किहा है कि:

“मन तूं जोति सरूपु है आपणा मूलु पछाणु ॥”

किसे वी चीज दी रौस़नी जिथों पैदा हुंदी है, उसदा मूल उसदे विच ही हुंदा है, किसे वी रौस़नी नूं उसदे मूल नालों अलग नहीं कीता जा सकदा, जिवें कि सूरज अते धुप दी मिसाल है, बलब अते उस तों पैदा होई रौस़नी दी मिसाल है, इस करके :

“मन महि आपि, मन अपुने माहि ॥ नानक कीमति कहनु न जाइ ॥७॥ {पंना 279}”

 मन महि ‘आपि’, इह ‘आपि’ कौण है ? आपां उपर विचार कर चुके हां, कि “हरि, वसै मन माहि” जां “सो ब्रहमु, बताइओ गुर, मन ही माहि ॥” जां “हरि मंदर महि, हरि, वसै” । ‘हरि’ जां ‘ब्रहम’ आप ही ‘आपणे मन’ विच है “मन अपुने माहि”, भाव कि इह ‘हरि’ दा ही मन है, ‘हरि’ ने आप ही आपणा ‘आपा’, आपणे ‘मन’ दे रूप विच उपाइआ है अते ‘हरि’ ही मन दा पिता-माता है :

“आपन आपु, आपहि उपाइओ ॥ आपहि बाप, आप ही माइओ ॥ {पंना 250}

जां

“हरि, आपे माता आपे पिता, जिनि, जीउ उपाइ, जगतु दिखाइआ ॥ {पंना 921}

जां

“भैरउ महला ५ ॥ तू मेरा पिता तूहै मेरा माता ॥ तू मेरे जीअ प्रान सुखदाता ॥ तू मेरा ठाकुरु हउ दासु तेरा ॥ तुझ बिनु अवरु नही को मेरा ॥१॥ करि किरपा करहु प्रभ दाति ॥ तुम्ह्हरी उसतति करउ दिन राति ॥१॥ रहाउ ॥ हम तेरे जंत तू बजावनहारा ॥ हम तेरे भिखारी दानु देहि दातारा ॥ तउ परसादि रंग रस माणे ॥ घट घट अंतरि तुमहि समाणे ॥२॥ तुम्ह्हरी क्रिपा ते जपीऐ नाउ ॥ साधसंगि तुमरे गुण गाउ ॥ तुम्ह्हरी दइआ ते होइ दरद बिनासु ॥ तुमरी मइआ ते कमल बिगासु ॥३॥ हउ बलिहारि जाउ गुरदेव ॥ सफल दरसनु जा की निरमल सेव ॥ दइआ करहु ठाकुर प्रभ मेरे ॥ गुण गावै नानकु नित तेरे ॥४॥१८॥३१॥ {पंना 1144}” इथे ‘मन’ आपणे मूल (हरि/ब्रहम/गुरदेव जां मुकंद) नूं संबोधन करके कहि रिहा है । “हरि जी माता हरि जी पिता हरि जीउ प्रतिपालक ॥ हरि जी मेरी सार करे हम हरि के बालक ॥ {पंना 1101}”

“गुरदेव माता गुरदेव पिता गुरदेव सुआमी परमेसुरा ॥ गुरदेव सखा अगिआन भंजनु गुरदेव बंधिप सहोदरा ॥ {पंना 250}”

“मुकंद मुकंद जपहु संसार ॥ बिनु मुकंद तनु होइ अउहार ॥ सोई मुकंदु मुकति का दाता ॥ सोई मुकंदु हमरा पित माता ॥१॥ {पंना 875}

जिथों कोई चीज पैदा हुंदी है जां उपजदी है ओसे विच(भाव कि आपणे मूल विच) ही समाउंदी है “जह ते उपजी तह मिली”,

पर समाऊ किवें? “सची प्रीति समाहु”

“साची प्रीति हम तुम सिउ जोरी ॥ तुम सिउ जोरि अवर संगि तोरी ॥३॥ {पंना 659}


Source: ਮਨ, ਤੂੰ ਜੋਤਿ ਸਰੂਪੁ ਹੈ, ਆਪਣਾ ਮੂਲੁ ਪਛਾਣੁ