Source: ਏਕ, ਏਕੁ, ਇਕ, ਇਕੁ ਅਤੇ ਅਨੇਕ ਦਾ ਅੰਤਰ

एक, एकु, इक, इकु अते अनेक दा अंतर

गुरमति विच एक अते इक सबद दे विच जमीन असमान दा अंतर है

इक = जोति (गुर/ आतमराम/ हरि/ दरगाह चो निकली जोत, समुंदर चो निकली बूंद)

एक = इक तों जिआदा जोतां दी एकता (सबद गुरू / परमेसर / हुकम/ गिआन/ दरगाह/ समुंदर)

एको एकु आपि इकु एकै एकै है सगला पासारे॥ जपि जपि होए सगल साध जन एकु नामु धिआइ बहुतु उधारे॥३॥

जदों जीव मुकती नूं प्रापत हुंदा ओह सवा लख विकारां नाल लड़ रिहा हुंदा। फ़िर जदों विकारां ते जित हो जांदी हुकम दी सोझी पै जांदी आतमा तो आतम हो जांदा, जोति सबद विच समा जांदी है। दरगाह विच परवान जोतां हीं जांदीआं जो के दरगाह विच पंच ने राजे ने। गुरमति तों पता लगदा के मुकती की है ते किवें मिलणी। मुकती मर के नहीं जीवित ही मिलनी। सारे भगतां नूं जींदिआं ही मिली। "गुर प्रसादि जीवतु मरै ता फिरि मरणु न होइ ॥२॥ "गुर परसादी जीवतु मरै हुकमै बूझै सोइ ॥ "गुर परसादी जीवतु मरै ता मन ही ते मनु मानै ॥ मन दा मरना माइआ तों धिआन हटणा माइआ दे विच रहिंदिआं ही मुकती है। "निकुटी देह देखि धुनि उपजै मान करत नही बूझै॥ लालचु करै जीवन पद कारन लोचन कछू न सूझै ॥ थाका तेजु उडिआ मनु पंखी घरि आंगनि न सुखाई ॥ बेणी कहै सुनहु रे भगतहु मरन मुकति किनि पाई ॥५॥

रोगी खट दरसन भेखधारी नाना हठी अनेका॥ बेद कतेब करहि कह बपुरे नह बूझहि इक एका ॥६॥ – आदि बाणी विच इक (१) जोति अते एक ( ओअंकारु) सबद दी समझ मिलदी है। पर इहनां दा फरक बहुत घट लोकां नूं समझ आउंदा। सारे ही वन गाड कही जांदे ने पर इक ते एक दा भेद कोॲॳि नहीं पाणा चाहुंदा।

कबीर जी ने एक अते इक दोनो स़बद वरते ने इक ही पंकती विच ते जे असल गल समझणी है ते इक अते एक दा फरक समझणा जरूरी है ।

"कबीर सेवा कउ दुइ भले एकु संतु इकु रामु॥ रामु जु दाता मुकति को संतु जपावै नामु ॥१६४॥ – इक राम है मनुख दे घट अंदर वसदी जोत जो परमेसर दे गुणां विच रमी होई है। एकु संत है अकाल, पंच परवान, दरगाह दीआं परवान जोतां जो एके विच हन, अकाल जिसदा हुकम चलदा। गुरमति दुनिआवी संत नहीं मंनदी। दुनिआवी भेखीआं नूं बानारस के ठग आखिआ।

लड़ाई अंदर दी है। बाहर दी नहीं..!

(एक ते अनेक विच फरक है । एक इको जेहिआं जोतां दा समूह। अनेक भिंन वखरीआं वसतूआं ता इकठ)। सारे भगत एक मति हन अरथ उहनां विच एका है। गुरमति गिआन दी बराबर सोझी है। जिथे फरक आ जांदा उथे एका नहीं हुंदा उथों अनेक हो जांदा भिंन हो जांदा।

इक एक ते अनेक समझ आउण तो बाद इह समझणा है

"जे इकु होइ त उगवै रुती हू रुति होइ ॥ (४८६) – उगणा की है? "बारसि बारह उगवै सूर॥ अहिनिसि बाजे अनहद तूर॥" सूर हुंदा सूरमा जिसने गिआन खड़ग लै के मन (अगिआनता/ दलिदर/ विकारां) नाल जंग करनी है। "गिआन खड़गु लै मन सिउ लूझै मनसा मनहि समाई हे ॥३॥

इकु किसने होणा?

ब्रहम अते ब्रहमा ने। मन अते चित ने।
होणा की – पूरनब्रहम

ब्रहमा बडा कि जासु उपाइआ॥ बेदु बडा कि जहां ते आइआ ॥२॥ (१४२९)

जह ते उपजी तह मिली सची प्रीति समाहु ॥(१३५)

गुरबाणी दे राहीं निराकार इक नूं जानणा है। किवें?

मन गुर मिलि काज सवारे ॥(१३)
गुर (ब्रहम) + मन (ब्रहमा) = पूरनब्रहम=१

जोती महि जोति रलि जाइआ॥ (८८५)
जोती(ब्रहम) + जति(ब्रहमा) =पूरनब्रहम=१

चंद सूरज की पाए गंढि॥ (९५२)
सूरज(ब्रहम)+ चंद(ब्रहमा)=पूरनब्रहम=१

राम कबीरा एक भए है कोइ न सकै पछानी॥
राम(ब्रहम)+कबीरा(ब्रहमा)=पूरनब्रहम=१

राम राम राम रमे रमि रहीऐ॥(१३२४)
राम(ब्रहम)+रामा(ब्रहमा)=पूरनब्रहम=१

"दुइ कर जोड़ि करी अरदासि॥निराकारी मन अते चित नूं इक कर के अरदास करनी है। केवल हथ जोड़ अखां तों अथरू सुट/टेर के गल नी बणनी। नाले गुरमुखां दी तां इको ही अरदास इक पंकती दी ही हुंदी है "इक अरदासि भाट कीरति की गुर राम दास राखहु सरणाई॥

इक = जोति (गुर/ आतमराम)
एक = अनेक जोतां ( सबद गुरू /हरि/ परमेसर / हुकम)

अनेक दा अरथ की है?

अनेक दा अरथ हुंदा भिंन। जिवें बाणी विच आउंदा "उसतति करहि अनेक जन अंतु न पारावार॥ अते "कोई करै उपाव अनेक बहुतेरे बिनु किरपा नामु न पावै॥ – जिसदा अरथ है के कई जन अनेक तरह दे उपाव, बहुत तरां दे करमकांड करके नाम (गिआन तों सोझी) प्रापती दी कोस़िस़ करदे ने पर बिनां किरपा, बिनां हुकम दे नाम प्रापती नहीं हुंदी। जिवें कई वीर भैण जूठे भांडे मांज के, जोड़े साफ़ करन नूं सेवा मंन लैंदे ने, कई चौर कर रुमाले भेंट करन नूं सेवा मंनी जांदे ने। इहनां नाल नाम प्रापती नहीं हुंदी, ना ही गुरमति इसनूं सेवा मंनदी है। जो गुरमति ने चार सटेजां दसीआं हन उह पार करनीआं ही पैंदीआं। "हरि प्रीति पिआरे सबदि वीचारे तिस ही का सो होवै॥ पुंन दान अनेक नावण किउ अंतर मलु धोवै॥ नाम बिना गति कोइ न पावै हठि निग्रहि बेबाणै॥ नानक सच घरु सबदि सिञापै दुबिधा महलु कि जाणै॥३॥

इक दी परीभास़ा?

इक दा अरथ है १ (singular, count of 1)। हरेक प्राणी आपणे आप विच इक है। वखरा है। वखरेवां सरीर कारण है। स़कल, हथ दीआं लकीरां, अनुभव, विकार सारिआं दे कले कले वखरे ने। जिवें कार कंपनी विचों निकलण वालीआं सारीआं गडीआं एक समान हुंदीआं ने इको जहीआं बणदीआं पर किसे ते कोई निस़ान लग जांदा, किसे नूं कोई नंबर पलेट मिलदी किसे नूं कोई वखरी जिस कारण सारिआं दी इक इक वखरी पहचाण बण जांदी है। इसे प्रकार जीव दा वखरेवां सरीर कारण है, माइआ कारण है, विकारां कारण है। ते एके दी मति नाल इह वखरेवां खतम हो जाणा।

इकु दी परिभास़ा

जदों इक + इक + इक बहुत सारे एके विच एक मति हो जांदे ने। जदों उहनां दी सोच, उहनां दा गिआन बराबर हुंदा है उह इकु हो जांदे ने (collective 1) इसनूं एकता वी आख सकदे हां। "सभना जीआ का इकु दाता सो मै विसरि न जाई ॥६॥। "इकु संसारी इकु भंडारी इकु लाए दीबाणु॥ उही जो इकु है एकता विच है घट अंदरला राम है उही संसारी है, उही भंगारी है ते उही प्रभ है। टीकाकारां ने इसनूं सनातन मति नाल जोड़ दिता अगिआनता वस ते विस़नूं महेस़ दसिआ। इस तरह दे कई उदाहरण हन गुरमति विच "सभ महि इकु वरतदा एको रहिआ समाइ॥ पाठ करन वाले, अखंड पाठ करन वाले, सहज पाठ करन वाले आह पड़्ह के गाहां निकल जांदे ने कईआं नूं सारी उमर इह भेद पता ही नहीं लगदा किउंके वीचारण दी बूझण दी कमी है। "जिनी इकु पछाणिआ दूजा भाउ चुकाइ ॥। "आवन आए स्रिसटि महि बिनु बूझे पसु ढोर॥नानक गुरमुखि सो बुझै जा कै भाग मथोर॥१॥

इको भाई मितु इकु इको मात पिता॥

मनु मानै गुर ते इकु होइ ॥१॥

एकु दी विआखिआ

एके वाली मति दा धारनी। सारे भगतां दी, गुरूआं दी मति गुरमति सी, उहनां दा धिआन इकु सी। जिवें बाणी दा फुरमान है "पंचा का गुरु एकु धिआनु॥ पंच दा अरथ हुंदा स्रेस़ठ, उतम। जो दरगाह विच परवान जोतां हन, उह एके विच हन। उहनां दा गुरु (गुण) समान है बराबर है। सारे एकु मती हन। "सभु को आखै बहुतु बहुतु घटि न आखै कोइ॥ कीमति किनै न पाईआ कहणि न वडा होइ॥ साचा साहबु एकु तू होरि जीआ केते लोअ॥३॥। जदों आखिआ "गुरु परमेसरु एकु है सभ महि रहिआ समाइ॥ इसदा भाव है के जो जीव दे घट अंदरली जोत है राम (रमिआ होइआ है) हरि है (नाम – गिआन तों प्रापत सोझी नाल हरिआ होइआ है, उह गुणां कारण परमेसर नाम एके विच है। "त्रै गुण पड़हि हरि एकु न जाणहि बिनु बूझे दुखु पावणिआ ॥७॥

"करण कारण प्रभु एकु है दूसर नाही कोइ॥ नानक तिसु बलिहारणै जलि थलि महीअलि सोइ॥१॥ – जे एकु १ हुंदा तां जलि (जल अंदर) अते थलि (थलि) अंदर वी किवें हो सकदा सी? एकु प्रभु = परमेसर।

एक दी विआखिआ

एका माई जुगति विआई तिनि चेले परवाणु ॥ – जिहनां ने एके दी मति लई उही परवान होए हन। एके दी मति है गुरमति। साडा विछोड़ा दरगाह तौ होइआ ही अनेकता कारण है। असी एका वार के ही जनम लिआ है "जो किछु पाइआ सु एका वार॥ एके दी मति लैके परमेसर नाल मुड़ एक होणा है। "नानकु एक कहै अरदासि॥ जीउ पिंडु सभु तेरै पासि॥३॥। "नानक एक जोति दुइ मूरती सबदि मिलावा होइ॥

निमख एक हरि नामु देइ मेरा मनु तनु सीतलु होइ॥

एक ही की सेव सभ ही को गुरदेव एक एक ही सरूप सबै एकै जोत जानबो॥१५॥८५॥ – गुरदेव कौण? गुर (गुण) देण वाला। सारिआं विच एक जोत पछानण दा आदेस़ है इथे वी। "हिंदू तुरक कोऊ राफजी इमाम साफी मानस की जाति सबै एकै पहिचानबो ॥

सचु करता सचु करणहारु सचु साहिबु सचु टेक॥ सचो सचु वखाणीऐ सचो बुधि बिबेक॥ सरब निरंतरि रवि रहिआ जपि नानक जीवै एक॥ – जिहड़ा सरब निरंतर रविआ (रमिआ) होइआ है उसनू जपि (जपण उपरंत – पछानण उपरंत) ही एका होणा।

सो भाई गुरमति दा फुरमान तां एके दा है। गुरबाणी दसदी है के साडा दरगाह तों निकाला किउं होइआ ते जीवदिआं ही मुकती किवें मिलणी। इही गुरमति तों खोज दा विस़ा गुरमुखां दा होणा चाहीदा। जिवें कबीर जी ने दसिआ है के जगु उपजदा बिनसदा किउं है साडा जनम किउं हुंदा है इह हुकम विच धुर की बाणी ने उहनां भगतां नूं समझाइआ है।

रागु आसा स्री कबीर जीउ॥ गुर चरण लागि हम बिनवता पूछत कह जीउ पाइआ॥ कवन काजि जगु उपजै बिनसै कहहु मोहि समझाइआ॥१॥ देव करहु दइआ मोहि मारगि लावहु जितु भै बंधन तूटै॥ जनम मरन दुख फेड़ करम सुख जीअ जनम ते छूटै॥१॥ रहाउ॥ माइआ फास बंध नही फारै अरु मन सुंनि न लूके॥ आपा पदु निरबाणु न चीनि॑आ इन बिधि अभिउ न चूके॥२॥ कही न उपजै उपजी जाणै भाव अभाव बिहूणा॥ उदै असत की मन बुधि नासी तउ सदा सहजि लिव लीणा॥३॥ जिउ प्रतिबिंबु बिंब कउ मिली है उदक कुंभु बिगराना॥ कहु कबीर ऐसा गुण भ्रमु भागा तउ मनु सुंनि समानां॥४॥१॥

बाणी पड़्हो ते विचारो। गुरमति विच भगत कबीर जी महाराज दा फुरमान है "सुंन संधिआ तेरी देव देवाकर अधपति आदि समाई॥ सिध समाधि अंतु नही पाइआ लागि रहे सरनाई॥१॥ लेहु आरती हो पुरख निरंजन सतिगुर पूजहु भाई॥ ठाढा ब्रहमा निगम बीचारै अलखु न लखिआ जाई॥१॥ रहाउ॥ ततु तेलु नामु कीआ बाती दीपकु देह उजॵारा॥ जोति लाइ जगदीस जगाइआ बूझै बूझनहारा॥२॥ पंचे सबद अनाहद बाजे संगे सारिंगपानी॥ कबीर दास तेरी आरती कीनी निरंकार निरबानी॥३॥५॥ – मनुख दे जीवनकाल नूं हनेरा मंनिआ है अगिआनता दा। भगत जी आखदे सिध समाध ला ला थक गए अंत नहीं पा सके। इस लई केवल गलां नाल गल नहीं बणनी। "ङंङा ङिआनु नही मुख बातउ॥ अनिक जुगति सासत्र करि भातउ॥ ङिआनी सोइ जा कै द्रिड़ सोऊ॥ कहत सुनत कछु जोगु न होऊ॥ ङिआनी रहत आगिआ द्रिड़ु जा कै॥ उसन सीत समसरि सभ ता कै॥ ङिआनी ततु गुरमुखि बीचारी॥ नानक जा कउ किरपा धारी॥५॥

बाणी दी विचार तों बिनां गल नहीं बणदी।


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