Source: ਅਕਲਿ (Intellect)
अकलि एह न आखीऐ अकलि गवाईऐ बादि ॥ अकली साहिबु सेवीऐ अकली पाईऐ मानु ॥ अकली पड़्ह्हि कै बुझीऐ अकली कीचै दानु
अकल इह नहीं है कि वाद-विवाद लोकां नाल करी जाईए अते सारी अकल गवा लईए, इहनूं अकल नहीं कहिंदे । गुरबाणी तां इहनूं अकल मंनदी नहीं, पर विदवान एसे कंम ‘च लगे होए हन। पहिलां पंडित वी लगे होए सन, अज साडे सिख विदवान वी लगे होए हन। विदवान एथे तक ही सीमत हुंदे हन, “अकलि गवाईऐ बादि” तक । जिहड़े आपणी अकल नूं वाद-विवाद ‘च पा के रखदे हन, उह विदवान हुंदे ने, सिख नहीं हुंदे, किउंकि गुरबाणी दसदी है इह गल । जीहने पड़्ह के बुझिआ है उह अकल है, असल ‘च अकल ओहो ही है जिहड़ी पड़्ह के बुझदी है कुझ । “अकली पाईऐ मानु“तां ही माण प्रापत होऊ जे पड़्ह के बुझांगे ।
“अकली साहिबु सेवीऐ” साहिब दी जिहड़ी सेवा है, इह वी अकल नाल करनी है, सरीर नाल नी करनी बाहरले नाल, अकल नाल करनी है । बाहरले सरीर दी सेवा, सेवा नहीं है, उदम है ओहो । अकल नाल सेवा करनी है बस । कार-सेवा वाली सेवा, अकल दी नहीं है, उह सरीर नाल हो रही है । जो सरीर नाल हो रही है, उह अकल दी सेवा नहीं है, अकल दी सेवा अलग गल है । अकल दी सेवा दरगाह विच कंम आउंदी है, सरीर दी सेवा दरगाह ‘च कंम नी आउंदी, इह तां अकल दी सेवा नूं समझण तक ही कंम आउंदी है । जे आउंदी है कंम तां फुल तक ही लै के जांदी है, फल नहीं है । फल किहड़ी सेवा नूं लगदा है ? अकल वाली सेवा नूं फल लगदा है । फल की है ? फल है ‘माण’, मानता प्रापत दरगाह विच।
पड़्ह के फेर उस तों बाअद बुझणा है
अकली पड़्ह्हि कै बुझीऐ अकली कीचै दानु ॥ नानकु आखै राहु एहु होरि गलां सैतानु ॥
असल तां राह एहे है, बाकी तां सभ स़ैतान ने जिहड़े गलां कर रहे ने । जो प्रचार अज सिख प्रचारक कर रहे ने, सभनां दा मन ‘स़ैतान’, आह दिमाग ‘च बैठा है । जिहड़े दिमाग नूं मंनदे ने ‘दसम दुआर’ उह सभ स़ैतान दे घर ‘च बैठे हन । ‘राज करेगा खालसा’ स़ैतान दा घर है, सिख इक कौम है, इतिहास बिनां कौमां नहीं रहिंदीआं, इह सभ स़ैतान दीआं गलां ने, गुरबाणी दी गल नहीं है । जो गुरबाणी विच गल लिखी होई है, इह स़ैतान नूं काबू करन दी गल है, ‘मन’ स़ैतान है । गुरबाणी तां मन नूं काबू करदी है । दूजी तां सारी स़ैतान दी सिखिआ है, स़ैतान दी सिखिआ ने ही सानूं सिखी तों दूर कर दिता । गुरबाणी तां स़ैतान नूं ‘मन’ नूं काबू करन वाली चीज है, पर ‘मन’ काबू किसे दे होणा चाहुंदा नहीं । मन कदों चाहुंदा ? मैं किसे दे काबू आवां, मैनूं कोई काबू करे ?
इसे लई किहा सी पहिलां मरन कबूल ,इथे मन मारन दी गल है , मथा टेकणा वी मनमत तिआग के आतमसमरपण करन दी गल सी , लेकिन कई वार देखण च आउंदा कई स़रधालू लंमे पै के मथा टेकदे आ, उठदे ही नी किंना चिर , निस़ान साहिब तों लै के गुरदवारे दीआं पौड़ीआं नूं वी मथा टेकदे आ, “नलका साहिब ” नूं वी मथा टेक दिंदे आ, इहना दा वस चले Dustbin नूं वी Dustbin साहिब कहि देण !
आपणी मत तिआगणी सी, मथे नी सी रगड़ने ,गुर की मत लैणी है , गुर की मति तू लहि इआने॥ भगति बिना बहु डूबे सिआने॥
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