Source: ਹੁਕਮ, ਬਾਦਸ਼ਾਹ ਅਤੇ ਪਾਤਿਸ਼ਾਹ
हुकम तां वरत रहिआ हर वेले। इक भाणा दरगाह तों आइआ दूजा साडे मन दी इछा है "आपणै भाणै जो चलै भाई विछुड़ि चोटा खावै॥ आपणे मन दी इछा जां भाणे ते चलण दी सोच जदों हुकम नाल नहीं रलदी तां दुख मिलदे। भाणा जां इछा हुकम तों बाहर नहीं जा सकदा। असीं आख तां दुंदे हां के असीं भाणा मंन रहे हां जां हुकम समझ लिआ जां मंनदे हां पर पातस़ाह आखदे हुकम मंनण नाल की हुंदा "हुकमु मंने सोई सुखु पाए हुकमु सिरि साहा पातिसाहा हे ॥३॥। असल विच हुकम मंनण दी थां असीं करता भाव विच फसे होए हां जदों तक संपूरण भरोसा ना होवे करता भाव खतम ना होवे उदों तक हुकम विच रास नहीं रली। "मरकट मुसटी अनाज की मन बउरा रे लीनी हाथु पसारि॥ छूटन को सहसा परिआ मन बउरा रे नाचिओ घर घर बारि॥२॥ मरकट मुसटी अरथ बांदर नूं फड़न लई इक निके मूह दे भांडे विच अनाज पा के रसी नाल भांडे नूं बंन दिता जांदा। बांदर जदौ मुठी नाल अनाज फड़ लैंदा तां भांडे विच फस जांदा लालच कारण हथ बाहर नहीं कढ सकदा ते फेर मदारी बांदर नूं काबू कर लैंदा। उसे तरां मन ने इछांवां फड़ीआं होईआं ने लालच कारण, विकारां कारण छड नहीं रहिआ। छुटण नूं हुण संसा (स़ंका confusion) पिआ, जिस कारण बांदर नूं घर घर नचणा पैंदा। उदां ही कई स़ोभा, लोकां विच धरमी दिसण दे लालच विच, लोकां विच जथेदार, लीडर, सेवक दिसण दी इछा विच फस जांदे ने ते घर घर नचदे फिरदे ने अरथ कदे किसे दे दसे राह ते कदे किसे दे दसे राह ते तुरी जांदे ने। निज घर दरगाह दे रसते तों दूर होई जांदे ने।
पाति अते पात
पात गुरबाणी समझा रही है
केतीआ खाणी केतीआ बाणी केते पात नरिंद॥ केतीआ सुरती सेवक केते नानक अंतु न अंतु॥ – भाव नरिंद तक पहुंचण दे केते (अनेक) राह दसे हन। सुरत वाले सेवक जिहनां नूं नाम (सोझी) है बिअंत हन।
जो तिसु भावै सोई करसी हुकमु न करणा जाई॥ सो पातिसाहु साहा पातिसाहिबु नानक रहणु रजाई॥ – जो तैनूं भाउंदा उही करदा आपणा हुकम नहीं चलाउंदा। उही पातिस़ाह है हुकम रजा विच चलण वाला। जिस नूं सिफ़त सालाह बकस़दा है उही पातिसाह है "जिस नो बखसे सिफति सालाह॥ नानक पातिसाही पातिसाहु॥
जिहड़ा सची कारे (कारज) लग गिआ उह पातिस़ाह ही है "मन मंधे प्रभु अवगाहीआ॥ एहि रस भोगण पातिसाहीआ॥ मंदा मूलि न उपजिओ तरे सची कारै लागि जीउ॥ – इह पातिस़ाही सारिआं भगतां नूं गुरूआं नूं मिली है इह वी गुरबाणी ने सपस़ट कीता है "भगत जना कंउ आपि तुठा मेरा पिआरा आपे लइअनु जन लाइ॥ पातिसाही भगत जना कउ दितीअनु सिरि छतु सचा हरि बणाइ॥ सदा सुखीए निरमले सतिगुर की कार कमाइ॥
हुकम जदों मंन लिआ ता पातिसाह बण जांदा जीव। असीं पातिस़ाह स़बद नूं नहीं समझे। बादस़ाह हुंदा है बाद (वाद/विवाद/झगड़ा) दा स़ाह (मालिक/दावेदार/हकदार) ।
सो बादस़ाह भाव बाद जितण वाला दुनिआवी राजे नूं आख सकदे। पाति हुंदा राह अते पत, पातिस़ाह दा अरथ बणदा जिसनूं दरगाह तों पत प्रापत होवे, राह दा स़ाह, राह ते चलण वाला। जिसनूं दरगाह दा राह (रसता) पता होवे जिसने दरगाह दा रसता जित लिआ होवे। बाद दे उदाहरण गुरमति विचों
"मिठा करि कै खाइआ कउड़ा उपजिआ सादु॥ भाई मीत सुरिद कीए बिखिआ रचिआ बादु॥
देही माटी बोलै पउणु॥ बुझु रे गिआनी मूआ है कउणु॥ मूई सुरति बादु अहंकारु॥ ओहु न मूआ जो देखणहारु॥२॥
सरब भूत एकै करि जानिआ चूके बाद बिबादा॥ कहि कबीर मै पूरा पाइआ भए राम परसादा॥
गिआनु गिआनु कथै सभु कोई॥ कथि कथि बादु करे दुखु होई॥ कथि कहणै ते रहै न कोई॥ बिनु रस राते मुकति न होई॥
बिनु बाद बिरोधहि कोई नाही॥ मै देखालिहु तिसु सालाही॥ मनु तनु अरपि मिलै जगजीवनु हरि सिउ बणत बणाई हे॥
पाति हुंदा पत। पातिस़ाह पत रखण वाला वी है।
हमरा बिनउ सुनहु प्रभ ठाकुर हम सरणि प्रभू हरि मागे॥ जन नानक की लज पाति गुरू है सिरु बेचिओ सतिगुर आगे॥(म ४, गउड़ी पूरबी, १७२) – इह गुरू रामदास पातिस़ाह जी महराज दा पातिस़ाही दावा है। जे पाति है तां कहि रहे हन के हमरी लज पाति गुरू है।
सतिगुरि पूरै कीनी दाति॥ हरि हरि नामु दीओ कीरतन कउ भई हमारी गाति॥ रहाउ॥ अंगीकारु कीओ प्रभि अपुनै भगतन की राखी पाति॥ नानक चरन गहे प्रभ अपने सुखु पाइओ दिन राति॥(म ५, रागु धनासरी, ६८१) – इह गुरू अरगजन देव जी महाराज दा पातिस़ाही दावा है ते इह पॲतिस़ाही भगतां नूं मिली है इस दी गवाही है।
"हमरी जाति पाति गुरु सतिगुरु हम वेचिओ सिरु गुर के ॥(म ४, रागु सूही, ७३१ – जो पातिसाही दावे रखदे ने उह सिर केवल गुर सतिगुर अगे ही भेंट करदे ने। ना के अज किसे नूं भेंट करता, चक के तुर पए कल किसे होर नूं भेंट करता। ना ही उह दुनिआवी साध, संत, गिआनी महापुरख आदी कहाउण वाले नूं सिर भेंट करदे ने। आपणे ते गुरू दे विचले फासले खतम करदे ने। केवल गुरू तों आस रखदे गिआन दी वी ते किरपा दी वी। सिर केवल इको वार भेंट हुंदा बार बार नहीं। जदों भेंट करता फेर चुकणा नहीं है। सिर भेंट करना अरथ आपणी मैं मार के गुरू नूं भेंट कर दिती हुण केवल गुरमति (गुणां दी, गुरू दी मति) ते चलणा।
मंने हुकमु सु परगटु जाइ॥
नानक हुकमु न मंनई ता घर ही अंदरि दूरि ॥
हुकमु मंनि सुखु पाइआ प्रेम सुहागणि होइ ॥१॥ – इथे बुध ने सुहागण होणा राम/हरि/जोत/मूल दा हुकम मंन के। जदों तक मन (अगिआनता) दा हुकम मंनदी दुहागण है।
गुरमुखि हुकमु मंने सह केरा हुकमे ही सुखु पाए॥
इस लई असीं हुकम तों बाहर नहीं जा सकदे। पाति (गुर दी दसी राह) ते चलांगे तां पातिस़ाही दावा मिलणा, कहण मातर नाल गल नहीं बणदी। टकराओ है मन दी इछा कारण मन दे भाणे कारण। हुकम तां इको वरत रहिआ "सभु इको हुकमु वरतदा मंनिऐ सुखु पाई॥३॥ साडी इछा साडा मन इसदे नाल राजी नहीं है इस कारण दुख भोगदा किउंके चाहुंदा तां है पर हुकम तों बाहर नहीं जा सकदा।
अगनि न दहै पवनु नही मगनै तसकरु नेरि न आवै॥
राम नाम धनु करि संचउनी सो धनु कत ही न जावै॥१॥
हमरा धनु माधउ गोबिंदु धरणीधरु इहै सार धनु कहीऐ॥
जो सुखु प्रभ गोबिंद की सेवा सो सुखु राजि न लहीऐ॥१॥ रहाउ॥
इसु धन कारणि सिव सनकादिक खोजत भए उदासी॥
मनि मुकंदु जिहबा नाराइनु परै न जम की फासी॥२॥
निज धनु गिआनु भगति गुरि दीनी तासु सुमति मनु लागा॥
जलत अंभ थंभि मनु धावत भरम बंधन भउ भागा॥३॥
कहै कबीरु मदन के माते हिरदै देखु बीचारी॥
तुम घरि लाख कोटि अस्व हसती हम घरि एकु मुरारी॥४॥१॥७॥५८॥ (राग गउड़ी, भगत कबीर जी, ३३६)
सिखां दा पातिस़ाही दावा
चौपई॥ दरबारै सिंघ अगयों कही॥ असीं निबाबी कद चहैं लई॥ हम को सतिगुर बचन पतिस़ाही॥ हम को जापत ढिग सोऊ आही॥ ३६॥ हम राखत पतिस़ाही दावा॥ जां इतको जां अगलो पावा॥ जो सतिगुर सिखन कही बात॥ होगु साई नहिं खाली जात॥ ३७॥ ध्रू विधरत औ धवल डुलाइ॥ सतिगुर बचन ना खाली जाइ॥ पातिस़ाही छड किम लहैं निबाबी॥ पराधीन जिह मांहि खराबी॥ ३८॥ दोहरा॥ हम पतिस़ाही सतिगुर दई हंनै हंनै लाइ॥ जहां जहिं बहैं जमीन मल तहि तहि तखत बनाइ॥ ३९॥ चौपई॥ इसी भांत बहु सिखन कही॥ हम को लोड़ निबाबी नहीं॥ पंथ छड बहयो कब उन के पाही॥ ४०॥ – (प्राचीन पंथ प्रकास़ निहंग भाई रतन सिंघ जी भंगू भाग दूजा पंना ३५-३६)
पुरातन सिंघां ने वी इही पातिस़ाही दावा कीता है। उहनां नूं पाति (नरिंध तक पहुंचण दा राह भाव हुकम मंनणा) सति (सचा) गुर (गुण) ने दसिआ है। सतिगुर तक पहुंचण दा राह है हुकम नूं मंन लैणा, समझ लैणा।
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