Source: ਹਰਿਮੰਦਰ (Harmandir) and ਆਤਮ ਰਾਮੁ (Aatam Ram)
पउड़ी ॥
हरि मंदरु सोई आखीऐ जिथहु हरि जाता॥
मानस देह गुर बचनी पाइआ सभु आतम रामु पछाता ॥ बाहरि मूलि न खोजीऐ घर माहि बिधाता ॥ मनमुख हरि मंदर की सार न जाणनी तिनी जनमु गवाता ॥ सभ महि इकु वरतदा गुर सबदी पाइआ जाई ॥१२॥
हरि मंदरु एहु सरीरु है गिआनि रतनि परगटु होइ ॥
मनमुख मूलु न जाणनी माणसि हरि मंदरु न होइ ॥२॥
मनमुख नहीं मंनदे की इह सरीर ही हरिमंदर साहिब है । परमेस़र नूं अंदर भालणा है बाहर नहीं ।
आतम रामु लेहु परवाणि॥
आतम राम परगासु गुर ते होवै॥
असली हरिमंदर बाहर नहीं साडे अंदर ही है , मनुख दा आपणा अंदरला स़रीर(मनु) जीव दा आपणा मूल ही हरिमंदर है जिवे कि गुरबाणी विच हुकम है :-
हरि मंदरु एहु सरीरु है गिआनि रतनि परगटु होइ ॥ 1346
साडा अंदरला स़रीर ही हरिमंदर है पर इह गुपत(कोई आकार नहीं, बुधी रूप है) रूप विच है | इस दे दरस़न गुरबाणी तों आतम गिआन भाव बरम गिआन लैके
(आपणे मनु आप पूरा जान के) ही कीते जा सकदे हन |
काइआ हरि मंदरु हरि आपि सवारे ॥ तिसु विचि हरि जीउ वसै मुरारे ॥1059
हरि मंदरु हरि जीउ साजिआ, मेरे लाल जीउ हरि तिसु महि रहिआ समाए राम ॥ 542
रागु सोरठि महला ५॥ कोटि ब्रहमंड को ठाकुरु सुआमी सरब जीआ का दाता रे॥ प्रतिपालै नित सारि समालै इकु गुनु नही मूरखि जाता रे॥१॥ हरि आराधि न जाना रे॥ हरि हरि गुरु गुरु करता रे॥ हरि जीउ नामु परिओ राम दासु॥ रहाउ॥ दीन दइआल क्रिपाल सुख सागर सरब घटा भरपूरी रे॥ पेखत सुनत सदा है संगे मै मूरख जानिआ दूरी रे॥२॥ हरि बिअंतु हउ मिति करि वरनउ किआ जाना होइ कैसो रे॥ करउ बेनती सतिगुर अपुने मै मूरख देहु उपदेसो रे॥३॥ मै मूरख की केतक बात है कोटि पराधी तरिआ रे॥ गुरु नानकु जिन सुणिआ पेखिआ से फिरि गरभासि न परिआ रे॥४॥२॥१३॥ {पंना 612}
साडा अंदरला स़रीर ही हरिमंदर है इह हरि ने आप बणाइआ है ते इस विच आप ही रहिंदा है |